Tuesday, December 1, 2009

26/11, मुंबई और असली आतंकवादी

" समझ नहीं आता, तारीखों से क्या रिश्ता है... क्या 26/11 के ज़ख्मों से खून सिर्फ आज के हीं दिन रिसता है..... ??? "

ये वो लाइनें हैं जो 26 नवंबर को लिख पाया बस... लेकिन जब से मुंबई का दौरा कर के लौटा था तब से हीं सोच रहा था कि इस बाबत कुछ लिखुंगा.... पर समय नहीं मिल पाया...
26/11 पर बनने वाली एक डॉक्यूमेंट्री के सिलसिले में मुंबई गया था.... 3 दिन शूट किया... हर उस जगह को करीब से देखा जहां की दीवारों, गलियों और सडकों तक से खून रिस रहा था एक साल पहले.... लोगों को भी देखा.... जिन्होंने ये सब देखा और झेला है.... जिनके आस-पास हादसा तो हुआ लेकिन वो महज़ viewer भर थे, उनके लिए 26/11 को याद करना, कैमरे के सामने सब बोलना, कहानी की तरह बताना.... बहुत मुश्किल नहीं था... कुछ तो शायद बोलते बोलते प्रोफेश्नल हो गये थे.... कामा हॉस्पिटल में एक शख्स मिला जिसने कसाब के साथ बीस मिनट बिताये थे.... और जिन्दा बच गया था.... मिलकर मुझे लगा कि शायद इसकी रुह तक कांप जाये हमें उस दिन के बारे में बताने में... लेकिन उसने तो टेक पर टेक दिये... सबकुछ इनऐक्ट कर के बताया.... यहां तक कि जब हम उससे पहली बार मिले और लिफ्ट का इंतज़ार कर रहे थे तो मैंने बातों बातों में उससे पूछा कि उस दिन हुआ क्या था... और उसने कहा... देखो साहब, बार बार नहीं बताउंगा... घबराओ मत, ऊपर चलो... सब ऐक्ट कर के दिखाउंगा... मेरे तो होश फाख्ता हो गये.... क्योंकि जब उसने कहा कि वो नहीं बताएगा तो मुझे लगा कि बेचारे के जख्म हरे हो जाते होंगे शायद बार बार बताने में लेकिन फिर लगा कि नहीं ये तो हैबिच्वुअल हो चुका है और अपना समय बरबाद नही करना चाहता....इंटरव्यू खत्म होने के बाद तस्वीर और साफ हुई कि उसे बस पैसे चाहिए थे.... थोड़े और............

लोग हंस रहे थे.... मस्त थे... बेखौफ हर उस जगह, जहां हमला हुआ था, मौजूद थे.... मुझे लगा शायद प्रशासन की तैयारियों ने इस बेखौफी को जन्म दिया है... लेकिन उनसे बात करके पता चला कि नहीं, उनसब को पूरा यकीन था कि मुंबई पर दुबारा ऐसा हमला हो सकता है.... फिर क्या चीज़ थी जो उन्हें डरने नहीं दे रही थी....

इस सवाल को साथ लिए मुंबई से दिल्ली वापस आ गया....और इस बात का जवाब मिला मुझे 26/11 के दिन शो एंकर करते वक्त, जब एक 10 साल की बच्ची हमारे साथ मुंबई से लाइव बैठी.... मुंबई हमलों में उसने टांगे गंवा दी हैं और कसाब मामले की सबसे कम उम्र की गवाह है वो.... बातचीत ठीक चल रही थी... मैं शायद उसका दर्द उससे ज्यादा महसूस कर पा रहा था... पर शो के अंत में जब उसका धन्यवाद करने लगा तो वो अचानक बोल पड़ी कि मैं लोगों से कहना चाहती हूं कि मेरा स्कूल में ऐडमिशन कराओ, मुझे घर चाहिए और टीवी भी और....... वो बोल हीं रही थी साउंड इंजीनियर ने पीसीआर से उसका ऑडियो काट दिया.... मैं सन्न था... जैसे तैसे शो वाइंड अप किया.... और उस वक्त लगा कि मुंबई में जो देखा और उस मंज़र ने जो सवाल पैदा किए उनसब का जवाब इस छोटी सी बच्ची ने दे दिया....

हर दर्द, हर तकलीफ शायद कुछ पल के बाद नहीं लौटती लेकिन भूखे पेट की हीं तकलीफ ऐसी है जो हर कुछ घंटों के बाद मुंह बाये सामने खड़ी हो जाती है.... और इसीलिए, किसी को डर नहीं लगता किसी आतंकी हमले से, किसी कसाब से, किसी अबु इस्माइल से... या फिर कहूं कि ज्यादा देर डर नहीं लगता क्योंकि सबको पता है कि इनसे डर गए तो पेट की आग जला कर मार देगी.... आतंकियों से तो फिर भी 60 घंटे लड़ा जा सकता है,जंग जीती जा सकती है लेकिन भूखे पेट का आतंक 60 घंटे क्या, 6 घंटे में हीं वो दर्द देने लगता है जो शायद AK-47 की गोलियां भी न देती होंगी....

26/11 के आतंकियों ने भी सबकुछ धर्म के नाम पर भले किया हो लेकिन वो भी अपने परिवार वालों को भूख के आतंक से दूर रखने के लिए हीं खुद सूली चढ़े.... ये भी एक सच है....

और शायद सबसे बड़ा सच ये है कि हर दिन एक 26/11 है... जहां हम सब जिन्दा रहने की लड़ाई लड़ रहे हैं... और आतंकी भूख, घात लगाये बैठी है....

Sunday, October 4, 2009

हम सब गाडियां हैं---- पार्ट 2

अगर आपने 'हम सब गाडियां हैं---पार्ट 1' पढ़ा है तो आप वाकिफ होंगे कि दरअसल हम सब गाडियां कैसे हैं.... लेकिन अगर मन में सवाल रह गए हों तो इसे भी पढ़ें क्योंकि मैं गाड़ियों को जितना देखता हूं आजकल, मेरा यकीन बढ़ता चला जाता है कि वाकई हममें और गाड़ियों में बहुत कुछ कॉमन है......

आपने कभी एक अयोग्य बॉस के नीचे काम किया है.... जरूर किया होगा.... दुनिया भरी पड़ी है ऐसे खुशकिस्मतों से जो हैं दो कौड़ी के नहीं लेकिन बॉस बने बैठे हैं.... एक दिन मैं गाड़ी चला रहा था तो अचानक मेरी नज़र ब्लू लाइन बस पर गयी.... मैं हार्न देता रहा और वो बस मज़े से पूरे सड़क को घेर कर चलती रही.... और तभी मुझे लगा कि अरे... ये तो बिलकुल मेरे बॉस की तरह है.... वो भी ऐसे हीं 10 की स्पीड से मज़े से पूरी सड़क को बाप का मान कर चल रहा है.... और हम कुछ नहीं कर पा रहे.... सिवाये इसके की कुढ़ते रहें और पीछे पीछे चलते रहें.... बीच बीच में कभी कभी हार्न बजाकर विरोध जता देते हैं....लेकिन घांय घांय करके चलने वाली उस ब्लू लाइन बस को कहां हमारी मासूम सी हार्न सुनाई देने वाली है.... वो तो बस चला जा रहा है, मस्त चाल से.... हां, बीच बीच में कुछ लोगों ने ज़ोर लगाया और अपनी गाड़ी फुटपाथ पर चढ़ाते हुए आगे निकल गए.... लेकिन इस मुई ब्लू लाइन पर तो उसका असर भी नहीं हुआ.... वो तो अब भी यही कह रही है.... 'जगह मिलने पर पास देंगे.... ओके टाटा'


वैसे कुछ बॉसेस इससे भी घटिया होते हैं.... दरअसल ब्लू लाइन बस के साथ कम से कम इतना तो है कि वो कुछ लोगों को साथ बिठाकर थोड़ी दूर ले तो जाती है.... पर कुछ बॉस तो ऑटो की तरह होते हैं.... जो दो से ज्यादा लोगों को साथ लेकर चल भी नहीं सकते.... आपको आगे निकलने का मौका भी नहीं देंगे.... इधर उधर खरोंच भी लगाएंगे.... जबरदस्ती, बेवजह पीं पीं वाले हार्न की तरह बजते रहेंगे.... कभी भी बीच सड़क पर खराब होकर अपने पीछे पता नहीं कितनों को फंसा देंगे.... और देखने में भी बदसूरत होते हैं..... पर इनके साथ अच्छी बात ये रहती है कि अगल बगल जगह इतनी छोड़ते हैं कि कोई भी आगे निकल जाये.... और स्पीड भी इतनी नहीं होती कि आपको खदेड़ कर नुकसान पहुंचा सकें... जो कि ब्लू लाइन जरूर कर सकती है....

और आखिर में एक तीसरे तरीके के बॉसेस भी होते हैं जो किसी भी तरह की गाड़ी हो सकते हैं लेकिन उनका ड्राइवर यानि की इनका दिमाग.... किसी काम का नहीं होता.... ऐसे बॉसेस के पीछे चलते वक्त जितनी कम रफ्तार से चलें उतना अच्छा है क्योंकि ये कभी भी ब्रेक मार कर आपकी गाड़ी का हाल बिगाड़ सकते हैं.... ऐसे बॉसेस दिमाग का दही करने में बेहद कुशल माने जाते हैं.... हालांकि इनकी अयोग्यता के कारण आप कभी भी इन्हें ओवरटेक कर सकते हैं लेकिन उन्हें कभी इस बात का एहसास ना होने दें.... और अगर होने दे भी दिया तो क्या.... वो तो सड़क पर गाड़ी के पीछे पीछे दौड़कर भौंकने वाले कुत्तों से भी ड़रते हैं तो आप तो फिर भी........

खैर ये खास संस्करण बॉसेस को समर्पित था.....
जल्द लेकर आऊंगा.... हम सब गाड़ियां हैं----- पार्ट 3,
तब तक ये बताना ना भूलें कि आपका बॉस कौन सी गाड़ी की तरह है.... कोइ नई कैटेगरी का हो तो शेयर करें.....

Thursday, September 24, 2009

रिश्ते मुझे उलझाने लगे हैं........

रिश्ते आजकल मुझे उलझाने लगे हैं... कई बार समझ में नहीं आता कि कौन सा रिश्ता किस मकसद से है... कई बार तो ये भी समझ में नहीं आता कि क्या हर रिश्ता किसी न किसी मकसद से होता है... औऱ अगर नहीं तो फिर क्या कोई भी बेवजह हीं जिन्दगी में आकर चला जाता है... संभव नहीं लगता... क्योंकि हम सब बिना वजह तो इस दुनिया में नहीं हैं... तो फिर बिना मकसद किसी की जिन्दगी में कैसे घुस सकते हैं और बिना मकसद किसी की जिन्दगी से कैसे निकल सकते हैं... रिश्तों के तारों को जितना सुलझाने की कोशिश कर रहा हूं ये उतने उलझते जा रहे हैं...

दूसरी एक बात जो आजकल परेशान कर रही है वो ये कि रिश्तों में उम्मीदें पालना सही है या नहीं... यानि कि एक्सपेक्टेशन... बिना उम्मीद के रिश्ते में से जान नहीं चली जायेगी... ??? पता नहीं... लेकिन कई बार ठोकर खाकर लगता है कि क्यों लगाई थी उम्मीद... पर फिर यही उम्मीदें किसी के करीब भी ले जाती हैं...हाल हीं में एक दोस्त के हमेशा सच बोलने की नौटंकी का पर्दाफाश हुआ... वो भी कुछ ऐसे अंदाज में कि सोचा न था... दिमाग झन्ना सा गया... समझ में हीं नहीं आ रहा था कि ये कैसे हो सकता है... और क्यों वो शख्स इतने दिनों तक झूठ बोलता रहा... समझ से परे था मेरे लिए सबकुछ... लेकिन दिमाग जोड़ घटाव करने में लगा रहा कि ऐसा हो कैसे गया... जब दिमाग कि नसें दुखने लगती तो खुद को समझा लेता कि यार... तुम्हें उम्मीद हीं नहीं पालनी चाहिए थी... लेकिन फिर मन में सवाल आया कि बिना उम्मीद रिश्तों का रस खत्म नहीं हो जायेगा... थोड़ी बहुत उम्मीद तो बनती है... और सच बोलना किसी उम्मीद के दायरे में तो नहीं आता...

फिर अचानक खबर मिली एक दोस्त की मां की तबीयत बहुत खराब होने की... डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है... सन्न खड़ा रह गया मैं थोड़ी देर के लिए सुनकर ... मैं किसी करीबी को खोने का गम जानता हूं... और शायद यही आंकलन करने लग गया था कि क्या होगा जब उसकी मां नही होगी... फिर एक सवाल कौंधा... कि क्या बेहतर है... किसी आदमी का मर कर हमारे जीवन से चले जाना... जिसमें वापसी की कोइ उम्मीद नहीं रहती या किसी शख्स का जीवित रहते हुए हमें छोड़ कर चले जाना... जिसमें हर लम्हा इंतजार में बीतता है... मुझे तुरंत जवाब नहीं मिला... क्योंकि मैंने दोनों परिस्थितियां झेली हैं... जब मेरे पिता मेरे जीवन से गए तो मैं अक्सर ये सोचता था कि कोई अभी दौड़ा दौड़ा आयेगा और कहेगा कि वो अब भी जिन्दा हैं... जो लाश मैंने देखी थी वो किसी और की थी... औऱ सब अच्छा हो जायेगा... लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ... पर इंतजार उस दौड़ कर आते शख्स का आज भी है... साथ हीं मैंने कई करीबी लोगों को जीवन में दूर जाते भी देखा... वैसे लोग जो जिन्दा हैं... जीवन के किसी मोड़ पर शायद कभी मिल भी जायें... पर उनसे मिलने की उम्मीद भी कम कसक पैदा नहीं करती... पर तय करना मुश्किल है कि दर्द किसमें ज्यादा होता है....

खैर इतना जरूर है... कि रिश्ते मुझे उलझा रहे हैं... कई बार तो ये भी समझ नहीं आता कि क्या रिश्तों में नाप-तोल कर बोलना, सच-भूठ का परसेंटेज तय करना... ये सब हो सकता है क्या... क्यों हर रिश्ता इतना उलझा है... समझ नहीं आ रहा.....................................

Friday, July 24, 2009

ये नाइंसाफी क्यों ???

जीवन में वैसे तो आजकल सोचने और दुखी होने के लिए वैसे हीं कुछ कम बातें नही हैं... लेकिन कल अचानक एंकरिंग करते करते कान में पीसीआर से आयी खबर ने हद से ज्यादा दुखी किया और बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया... खबर पटना की थी, जहां का मैं रहने वाला हूं.... एक लड़की के साथ बीच सड़क पर, सैंकड़ों की भीड़ के सामने बदसलूकी की गयी... और शायद बदसलूकी भी कम शब्द है.. क्योंकि उस लड़की को उस भीड़ में, बीच सड़क पर, सरेआम नंगा कर दिया गया... कैमरा भी था वहां,सबकुछ अपने अंदर उतारता हुआ ताकि उस लड़की की बेइज्जती को और सार्वजनिक बनाया जा सके... उसके कपड़े और इज्ज़त तार तार कर दिए गए...तस्वीरें देखकर पता नहीं क्यों पर मैं शून्य में चला गया...बिलकुल ब्लैंक था मैं... लेकिन तब तक उपर से कान में एक और निर्देश आया कि विजुअल देखकर कमेंट्री करें... ऐसा लगा जैसे सीना चीर दिया हो किसी ने... एक लड़की की जिन्दगी बीच सड़क पर कैसे सबके सामने बर्बाद कर दी गयी इसपर संजय की तरह आंखों देखा हाल बताऊं... दिल सचमुच अंदर से रोता रहा और मैं बोलता रहा... थोड़ी देर बाद बुलेटिन खत्म हो गया.... पर वो तस्वीरें ज़हन से जाती नहीं... वैसे भी दो-तीन दिन से ढंग से सोया नहीं पर जब आंखें बोझिल होती हैं तो अचानक से उस लड़की का ख्याल आ जाता है... क्या वो सो पा रही होगी... क्या बीत रही होगी उसपर... और वो, वो कैसे सो रहे होंगे जो वहां तमाशबीन बने सबकुछ देखते रहे और कुछ नहीं किया... कितना आसान होता है ना, ऐसा कुछ करो या देखो और फिर घर जाकर सो जाओ... या भूल जाओ... लेकिन जिसपर बीती... वो 15 मिनट की घटना उसकी जिन्दगी का ऐसा नासूर है जो रह रहकर चुभेगा और उसमें से खून रिसेगा...
कई बार सोचता हूं... कि अगर भगवान सबको एक नजर से देखता है तो उसने बनाते वक्त इतनी नाइंसाफी क्यों की... क्यों लड़कियों को हीं हर तकलीफ झेलने की किस्मत दी... बलात्कार हो तो लड़की का, छेड़ा जाए तो लड़की को, सरेआम नंगा करके घुमाया जाये तो लड़की को और बच्चे पैदा करने का असहनीय दर्द भी झेलना पड़े तो लड़की को... क्यों.... क्यों लड़कों को उस दर्द का एहसास करने जैसी कोई सज़ा नहीं दी... क्यों बराबरी का हिस्सा क्यों नही दिया... और उसपर ये बेशर्मी भी दे दी हमें कि सरेआम किसी लड़की को नंगा होते हुए देखें और मुसकुराएं... क्या पटना में उस लड़की की जगह, उस भीड़ में से किसी की मां, बहन, बेटी या बीवी होती तो भी वो शख्स वैसे हीं देखता... क्या तब भी वो वैसे हीं आराम से जाकर सो जाता... क्या वो लड़की किसी की कुछ नहीं होते हुए भी एक इंसान नहीं थी... जिसे खुश रहने का हक है... जिसे इज्जत से रहने का हक है... जिसे जिन्दगी जीने का हक है... लेकिन जिसे हमसब ने मिलकर एक ऐसा दर्द दिया है जो कभी नहीं जायेगा... क्यों... क्यों हुआ ये सब... और क्यों बदलता नहीं कुछ भी???

Friday, July 17, 2009

बांधो बस्ता, आगे बढ़ो......

बांधो बस्ता आगे बढ़ो
लंबा है रस्ता आगे बढ़ो

माथे पर पसीना
हालत खस्ता
हर मोड़ पर पड़े
परेशानियों से वास्ता
रुकना मत
झुकना मत
सांसे थामे, सब से लड़ो
बांधो बस्ता, आगे बढ़ो
लंबा है रस्ता, आगे बढ़ो

जो गुज़र गया
उसका दुख कदमों को डगमगाये नही
जो मिल रहा है
वो सांसों में समाने से पहले गुज़र जाये नहीं
जो मिलेगा आगे
उसका कौतूहल और उत्साह मन में भरो
बांधो बस्ता आगे बढ़ो
लंबा है रस्ता, आगे बढ़ो

गलत मोड़ मुड़ने पर भी जोश कम ना हो
जो साथ नहीं अब उनका अफसोस न हो
थकते हों कदम या उफनती हो धड़कन
सफर के फासले का होश ना हो
जो बोझिल करे रास्ता
ऐसे बोझ को कंधे से उतारो
जीयो हर लम्हा
मील के पत्थर गाड़ो
सफर बने यादगार
हर कदम कुछ यूं ज़मीं पर रखो
बांधो बस्ता, आगे बढ़ो
लंबा है रस्ता, आगे बढ़ो

Monday, July 13, 2009

हम सब गाड़ियां हैं....

हर रोज़ गाड़ी से दफ्तर आना जाना होता है... रफ्तार से चलती कार और कान फाड़ते स्पीकर... इन्हीं दोनो का साथ होता है... पर एक दिन अचानक एक सोच ने साथ चलना शुरु कर दिया और आस-पास जो कुछ भी था उसे देखकर यही लगा कि हम सब जिन्दगी की सड़क पर चल रही गाड़ियां हैं.... हां, गाड़ियां... अलग अलग मॉडल, रंग, खूबियों और बुराईयों वाली गाड़ियां... किसी का रंग आकर्षक है तो किसी की रफ्तार... कुछ आवाज़ कर रहे हैं तो कुछ बिन आवाज़ हवा से बातें कर रहे हैं... सब अपने अपने सफर पर हैं... किसी को नहीं पता कि साथ चल रही कौन सी गाड़ी किस रेड लाईट पर अलग दिशा में चली जाएगी... किसी को नहीं पता अगले मोड़ पर कौन सी गाड़ी साथ चलने लगेगी... जीवन में कई ऐसे लोगों से मिला जिन्हें देखकर लगता था कि ये इतना स्लो क्यों हैं... जल्दी जल्दी और अच्छा काम क्यों नहीं कर सकते... ??? अब समझ में आया कि दरअसल वो सड़क पर चलने वाले ऑटो की तरह हैं... जो इससे तेज़ चल हीं नहीं सकते... और आवाज़ भी करेंगे ही करेंगे... लेकिन सबसे बड़ा खतरा ये होता कि उनकी चाल किसी बड़ी गाड़ी को डेंट ना पहुंचा दे...और जाने अनजाने बेचारे ऐसा कर हीं जाते हैं... और गाली भी खाते हैं...सड़क पर चलने वाली बसों को देखकर लगा कि ये लीडर(राजनीति वाले नहीं, लीड करने वाले) की तरह हैं जो जगह घेर कर चलते हैं और एक बड़े कुनबे को साथ लेकर चलने की कुव्वत रखते हैं....उनके सफर में कई लोग सवार होते हैं साथ, और जिन्दगी के छोटे मोटे एक्सीडेंट्स से उनका कुछ नहीं बिगड़ता और न हीं उसमें सवार लोगों का वो कुछ बिगड़ने देते हैं...इतना हीं नहीं... योग्यताओं के हिसाब से भी आप लोगों को मारुति 800 से लेकर लिमोज़ीन तक की कैटेगरी में बांट सकते हैं... पर कुछ बिन साइलेंसर की गाडियों की तरह होते हैं... शोर ज्यादा करते हैं काम कम... धुआं भी बहुत छोड़ते हैं... जो दूसरों की आंखों में आंसू तक ले आये...इनसे बचने के दो हीं तरीके हैं, या तो इन्हे आगे जाने दो या खुद अपनी रफ्तार बढ़ाकर तेज़ी से आगे निकल जाओ... य़ुवाओं को देखता हूं तो लगता है कि शो रुम से अभी अभी निकली नयी गाड़ियां हैं.... भले हीं ऑटो हों या ऑल्टो या फिर बीएमडब्लयू... सब में नयेपन का उत्साह और पर्फारमेंस में कसाव नज़र आता है... पर ये भी तय है कि वक्त के साथ इनमें भी बदलाव आ हीं जायेगा....साथ हीं आजकल के युवा, सीएनजी लगी गाड़ियों की तरह हैं... पहले की गाड़ियों की तरह ज्यादा प्रदूषण नहीं फैलाते... लेकिन अफसोस इनकी तादात कम है....अच्छा, ये भी मान कर चलिए, कि इस सफर में आप किसी न किसी गाड़ी को, चाहे-अनचाहे, ठोक हीं देंगे....लेकिन आपकुछ नहीं कर सकते, सिवाये इसके कि सफर जारी रखें... क्योंकि उस गाड़ी की मरम्मत भगवान के सर्विस सेंटर में हीं होगी...इसके अलावा गाड़ियों का मेनटेनेन्स तय कर देती है कि वो कितनी उम्र तक अपने पर्फारमेंस को बनाये रख पायेंगे... गाडियों की हालत, जिन्दगी की सड़क पर मिलने वाले इमोशनल गढ्ढे भी तय करते हैं... सर्वीसिंग कब कब हुई है... परेशानियों के पंक्चर कितने झेलने पड़े हैं... या फिर उत्साहरुपी पेट्रोल कितनी बार खत्म हुआ है... ये सबकुछ तय करते हैं कि गाड़ी कितनी शान से और कब तक चलेगी... और कब यमराज की क्रेन गाड़ी को उठाकर ले जायेगी... बस बचते चलना है... बढ़ते चलना है... सड़क पर दूसरी गाड़ियां आगे निकलने की कोशिश करेंगी हीं... कुछ गलत साइड से तो कुछ धक्का मारते हुए... हो सकता है परेशानियों का जाम भी मिले... गाड़ी थम तो सकती है पर रुकनी नहीं चाहिए... चलते जाना है... और हां, हर रोज़ गाड़ी को चमका कर, शान से निकलिए सफर पर... और कहते चलिए... 'बुरी नज़र वाले,तेरा मुंह काला' और 'जगह मिलने पर हीं पास देंगे'
ओके...टाटा... हार्न प्लीस... फिर मिलेंगे... (इसी ब्लॉग पर) :)
(निवेदन:- और हां, आप कौन सी गाड़ी हैं... खुद तय करें... और कमेंट सेक्शन में उसका ज़िक्र भी करें... किसी और गाड़ी का ज़िक्र करना चाहें तो वो भी करें और हां, मैं कौन सी गाड़ी लगता हूं आपको, ये भी स्वतंत्रतापूर्वक लिखें...!!!)

Wednesday, July 8, 2009

सही गलत क्या है....???

मन बार बार पूछता है
क्या है सही
क्या है गलत
तय करेगा कौन
कौन उठायेगा ये ज़हमत

पर बंध सी गयी है जिन्दगी
सही-गलत के दायरे में
मन के कोरे कागज पर
सपनों की कलम कुछ नया लिखती ही नहीं
पन्ने तो सारे भर रहे हैं
किसी और का हीं लिखा सुनकर, इस जीवन के मुशायरे में

जब सब पहले से तय कर
उसने भेज दिया हमें किरदार निभाने
तो हम क्यों लगे हैं
कौन हीरो, कौन विलेन
ये खुद से तय कर
उसकी काबिलियत को आज़माने

क्यों न हर रिश्ता दिल से जीयें
क्यों न हर बंधन प्यार के धागे से सीयें
क्या सही किया, क्या नहीं
इस परख को क्यों न मार दें आज यहीं
क्यों हो हमारे हर फैसले की सुनवाई
दिल के सही-गलत की कचहरी में
जब हमारे बस में नही जिन्दगी
तो क्यों न भूला दें हर गम मस्खरी में
हर दिन एक अनुभव हो
बस अनुभव
सही गलत, गलत सही
बहुत हुआ, बस अब और नहीं
बस अब और नहीं.....

Saturday, May 23, 2009

आज फिर हाथ जोड़ा है....

आज फिर हाथ जोड़ा है...
कपकपाती रुह में
बेइंतहां कसक है
अनगिनत अनसुलझे सवाल हैं
भीड़ को रौंदती तन्हाई और
दर्द भी थोड़ा है
लेकिन शिकवा करुं तो किससे
क्योंकि
कतरा कतरा
तिनका तिनका
जाने-अनजाने
मैंने हीं तो इन्हें जोड़ा है
और अब
जिन्दगी की इस धुंध भरी राह में
जब आगे नहीं दिख रहा कुछ
तो ये सफर
अब उसपर हीं छोड़ा है
आज फिर हाथ जोड़ा है.....


नादान दिल की फितरत ठीक नहीं
ना मिले तो रोए बच्चों सा
जो मिले सो खोए बच्चों सा
हर रिश्ता खुद हीं तोड़े
फिर कोने में बैठकर
आंसू भी बहाए थोड़े थोड़े
पर अब जब इसे संभाल कर
नया सपना जोड़ा है
तो अबकी किस्मत ने साथ छोड़ा है
सही गलत की दम तोड़ती समझ के बीच
अब सब उसपर हीं छोड़ा है
आज फिर हाथ जोड़ा है

Monday, May 18, 2009

आखिरकार एक ऐसा चुनाव जो समझ से परे नहीं है.....

पिछले दो महीने की हर रोज़ की चिकचिक और झिकझिक के बाद आखिरकार चुनावों के नतीजे आ गए... लेकिन इन नतीजों ने बतौर युवा मुझे बहुत उत्साहित किया.... इसलिए नहीं कि जीत कांग्रेस की हुई... बल्कि इसलिए की जीत सालों बाद आम आदमी की हुई... "कई बातें ऐसी होती है ,जिन्हें शब्दों की सजा नहीं देनी चाहिए ..देखा जाए तो यह धरती मजबूरियों का लम्बा इतिहास है"...किसी करीबी के ब्लाग पर अमृता प्रीतम की ये पंक्तियां पढ़ रहा था तो लगा जैसा बिलकुल आज के लिए मौजूं हैं ये पंक्तियां... नेता दो महीने तक चिल्लाते रहे... गाली-गलौच, नोच-खसोट, तरह तरह के हथकंडे अपनाते नेता सिर्फ वोट के लिए, क्या नहीं देखने को मिला इस दौरान... पर आम आदमी चुपचाप सब देखता रहा बिना कुछ कहे... बिना इन बातों को शब्दों की सज़ा दिए उसने हर उस नेता को हार की सबसे बड़ी सज़ा दी जो जीत के हक़दार नहीं थे... वरना किसने सोचा था कि बिहार में रामविलास जैसे नेता की हार होगी वो भी उस सीट पर जहां से वो कभी नहीं हारे और जीते तो अक्सर रिकार्डतोड़ अंतर से...और रामविलास अकेले नहीं हैं.. कई बड़े और दिग्गज नेताओं को जनता ने सच्चाई का आईना दिखाया... और खुशी इसी बात की है इन नेताओं को चुनने की मजबूरी के लंबे इतिहास, के इतिहास बनने की शुरुआत हो गयी है... मुझे इन चुनावों में तीन बातों की सबसे ज्यादा खुशी हुई...

1. बिहार ने देश का भ्रम तोड़ दिया कि वहां कभी विकास के लिए वोट नहीं डाले जा सकते... मैं खुद बिहार से हूं... और एंकरिंग करते वक्त सांसें थामें इंतज़ार कर रहा था बिहार से आने वाले एक एक नतीजे का... क्योंकि ये चुनाव बिहार के लिए किसी लिटमस टेस्ट से कम नहीं था... और मुझे पता था कि इसबार नहीं तो कभी नहीं... अगर बिहार ने नीतीश कुमार के काम पर रियैक्ट नहीं किया तो बिहार के लिए बहुत बुरा होगा... पर अजीबोगरीब खुशी महसूस कर रहा हूं नतीजों को देख कर...इन नतीजों को देखकर तो एकबारगी ऐसा लगा जैसे कास्ट पालिटिक्स तो कभी थी हीं नहीं बिहार में....इतना हीं नहीं, जार्ज फर्नांडिस जैसे कद्दावर मगर बुज़ुर्ग नेता कि हार ने दिखाया कि लोगों को अब सिर्फ काम से मतलब है नाम से नहीं... और काम करने के लिए बूढ़ी हड्डियां नहीं बल्कि नया जोश चाहिए... खुश हूं कि लोगों ने बिहार की हार को रोक दिया...

2. दूसरी सबसे बड़ी खुशी की बात रही.. दागी नेताओं की हार... बिहार हो या यूपी या फिर देश का कोई और हिस्सा... जनता ने, क्रिमिनल जो आजकल नेता कहलाते हैं, उनहें बताया कि उनकी जगह लोकतंत्र के मंदिर में नहीं बल्कि कहीं और है... बिहार में भी, न सिर्फ शहाबुद्दीन, सूरजभान और पप्पू यादव जैसे नेताओं के रिश्तेदार हारे (इनके न लड़ पाने की सूरत में इनकी पत्नियां मैदान में थीं... पप्पू यादव की तो मां भी चुनाव लड़ी रही थीं.) बल्कि जेडीयू के जादू के बावजूद भी इसी पार्टी के प्रभुनाथ सिंह और मुन्ना शुक्ला जैसे दागी प्रत्याशियों को वोटर नहीं पचा पाया... य़ूपी में भी यही हाल रहा... मुख्तार अंसारी हो या कोई और... सबके गुनाहों की पहली सज़ा उन्हें जनता ने दे दी और बता दिया कि उनकी दबंगई अब नहीं चलेगी....

3. तीसरी बड़ी खुशी इस बात से हुई कि सरकार कि ताकत इतनी है(नंबर के मामले में) कि छोटी मोटी पार्टियों की हर छींक से उसे घबराने की जरुरत नहीं है... एक देश के विकास के लिए ये बहुत जरुरी है कि सरकार को काम करने की स्वतंत्रता और निर्भीकता मिले... ये नहीं कि छोटी छोटी पार्टीयां कनपट्टी पर बंदूक ताने रहें चौबीसो घंटे और सरकार गिरा देंगे कि धमकी के नाम पर मनचाहा पोर्टफोलियो हासिल करें और हर नीति पर नासमझी का तर्क देती रहें... ऐसी बारगेनिंग करने वाली पार्टियों के लिए भी सबक हैं ये नतीजे...

यानि बहुत साफ है कि जय हो कांग्रेस की नहीं बल्कि 'जय हो वोटर' होना चाहिए क्योंकि वो अब परिपक्व हो रहा है और उसके दिए नतीजे किसी के भी समझ के परे नहीं हैं.....

नोट:- वोटर कि इस जागरुक्ता का थोड़ा श्रेय रात रात भर जाग कर काम करने वाले मीडियाकर्मियों को भी दिया जाना चाहिए जो हर कच्चा चिठ्ठा जनता के सामने रखते आये... माना कि राखी सावंत थोड़ा ज्यादा दिखा दिया लेकिन ऐन वक्त पर हमने भी परिपक्वता दिखा दी...

Monday, May 11, 2009

क्या मैं भी एक दिन इन जैसा हो जाऊंगा........???

नौ महीने के अंधकारवास के बाद
मैं जब इस दुनिया में आया
खुश होने की बजाए जाने क्यों
बहुत रोया, और खूब चीखा चिल्लाया...
उठना, रोना, खाना और सोना
कुछ महीनों तक तो यही चला
हर थोड़ी देर पर आंखे खोल दुनिया को घूरता था
और अपनी निठ्ठली किस्मत पर रोता था
शायद सदमा इतना था कि हर थोड़ी देर में नींद की बेहोशी में होता था...
पल दो पल की देखी में हीं
शायद समझ गया था मैं
इस काली नगरी में मैं भी काला सन जाऊंगा
और शायद एक दिन मैं भी इन जैसा हो जाऊंगा....

मुझसे ज्यादा चिंता मेरे रंग की थी
गोरा, काला या फिर गहरा सांवला
इसपर घंटों चिंता होती थी
मेरे सिर पर बाल कम क्यों हैं
इसका जवाब ढूंढने में लोगों ने अपने बाल नोच डाले
आंख, नाक, मुंह, कान और पता नहीं कौन कौन से अंग
किससे मिलते हैं
इसके जवाब पर तो जिसे मौका मिलता था वही अपना हक जमा ले...
मेरी हर छींक के सौ से ज्यादा कारण थे
और उसका इलाज बताने वाले
वो भी कहां साधारण थे...
मेरा तो ये सब देख देख कर बुरा हाल था
और मेरे डरे, सहमे पिद्दी से दिल में बस यही सवाल था
कि मैं ये सब कब तक सह पाऊंगा
और क्या एक दिन मैं भी इन जैसा हो जाऊंगा....???

पर धीरे धीरे मैं भी एडजस्ट करने लगा
इस दुनिया के अजीबो गरीब रंग में ढ़लने लगा
लेकिन अब भी मेरे हर फैसले पर
किसी न किसी का अमेरीका सा अधिकार मुझे कचोटता था
और मैं यही सोचता था
कि मेरा स्कूल तय करने से पहले ये मुझसे क्यों नहीं पूछते
क्योंकि हर दिन उस स्कूल से 8 घंटे, ये तो नहीं जूझते...
मुझे कौन सा खेल पसंद हो
ये खेल खेल में तय हो जाता है
मुझे हर वही चीज़ मन भाए
जो परिवार के बजट में समाता है
मेरी कोचिंग का नाम भी
उस कोचिंग के पिछले बैच के बच्चों के मार्कस तय कर देते हैं
और विद्रोह का बिगुल फूंको तो सबकुछ तुम्हारे लिए हीं तो किया
ये पलट कर मुझसे कह देते हैं...
मेरे जीवन पर ये सीनाजोरी कबतक चलेगी
और कब तक मैं इस कैद में बंद रह पाऊंगा...
पर उससे भी बड़ा सवाल है
कि क्या एक दिन मैं भी इन जैसा हो जाऊंगा... ???

थोड़ा और बड़ा हुआ, कॉलेज पहुंचा
यहां के तो ढंग हीं निराले थे
सारे सिखिया पहलवान सुंदरीयों के जबरन बना दिए गए भाई
और हर मुशटंडे के निस्वार्थ साले थे
जिसको देखो, करियर...करियर चिल्लाता फिरता था
और जो वो बनना चाहते थे उसका पढ़ाई से निपट नहीं कोई नाता था
परिवार की झूठी आन, बान और शान के लिए
जिन्दगी के सुनहरे दिन और कोरे कागज
दोनों काले कर दिए
हमारे जीवन के उठने, बैठने, जगने, सोने और नित्य क्रियाओं तक के
सारे कार्यक्रम और समय प्रिंसीपल नाम के निगोड़े ने तय किए
कॉलेज के गेट पर बैठा
यही सोचता रहता था
कब तक इनके बनाए रस्तों पर मैं आंखें भींचे चल पाऊंगा
कहीं एक दिन मैं भी इन जैसा तो नहीं हो जाऊंगा....

अब तो नौकरी करता हूं
दिनभर बॉस की हां में हां, कईयों को भरते देखता हूं
जीवन कैसे जीना है, आगे कैसे बढ़ना है
दूसरों के अलौकिक इतिहास की गाथाएं
किसी तीसरे के मुंह से सुनकर पकता रहता हूं
शादीशुदा मशीनों से भी मिलना हो जाता है
जिन्हें कब बीवी, बच्चे, ससुराल या फिर बॉस के मोड में चलना है
ये भी कोई और हीं बताता है
एक जीवन मिला था, जो सबने किसी और के मुताबिक जीया
कौन क्या सोचेगा, ये किया तो क्या होगा, हार गए तो....
ये सब सोचने में हीं व्यर्थ कर दिया
पर क्या मैं अपना जीवन अपनी मर्ज़ी से जी पाऊंगा
या फिर एक दिन मैं भी इन जैसा हो जाऊंगा........

Tuesday, May 5, 2009

जीत की हवस नहीं, किसी पर कोई वश नहीं.......

आज दफ्तर में ऐसा कुछ हुआ जिससे इस बात में यकिन और बढ़ने लगा है कि लोगों में जीत की हवस और दूसरों पर हावी होने की भूख बढ़ती जा रही है.... और जब ऐसा नहीं हो पाता तो वो बहुत परेशान हो जाते हैं और कुछ ऐसे तरीके से बर्ताव करते हैं जिसे अगर बाद में, शांत मन से वो खुद कसौटी पर उतारें तो शर्मिंदा महसूस करें....
दरअसल सच ये है कि हम सब इस दुनिया में एक अनुभव के लिए आए हैं.... हम जो हैं वो हम हैं और हम खुश हैं... वैसे हीं कोई दूसरा भी एक अलग पहचान, एक अलग व्यक्तित्व, एक अलग सोच के साथ इस दुनिया में आया है और वो वैसा हीं है और वो खुश है ... हमारा एक-दूसरे से अलग होना हीं हमारी पहचान है... हमारे बीच का अंतर हमें परेशान कर सकता है लेकिन तभी तक जब हम उस अंतर पर ध्यान दे रहे हैं... जिस दिन हम इस बात पर ध्यान देंगे कि वो क्या है जो हम चाहते हैं, जो हमें खुशी देता है... हमारा ध्यान खुद ब खुद उस अंतर पर से हट जाएगा जो हमें तकलीफ दे रहा था...
हम इस दुनिया में इसलिए नहीं आए कि हर किसी को वही सच मानने पर मजबूर कर दें जो हमें लगता है कि सच है, या हर किसी को उसे हीं सही मानने के लिए बाध्य करें जो हमें लगता है कि सही है... या लोग उसे हीं खूबसूरत या बढ़िया माने जो हमें लगता है कि खूबसूरत या बढ़िया है.... नहीं... हम इसलिए नहीं आए हैं... हम सारी दुनिया को अपने जैसा बनाने नहीं आए हैं... क्योंकि जिस दिन ऐसा हो गया, हमारा आगे बढ़ना, इवौल्व होना, रुक जाएगा....
लेकिन जाने-अनजाने हम सब कर यही रहे हैं... हम चाहते हैं कि सब वैसा हीं सोचें जैसा मैं सोचता हूं... सब वही करें जो मुझे लगता है कि सही है... मेरा सच उनके लिए सच हो... जो जो मैंने अपने जीवन में किया वो सबके लिए आदर्श हो और सब वैसा हीं करें... जबकि ऐसा नहीं है... हर कोई अपना जीवन जीने के लिए इस दुनिया में है... हम हमारे आसपास वैसी हीं दुनिया बनाते जाते हैं जैसी दुनिया हम चाहते हैं लेकिन दूसरे को ऐसा करने से रोकते हैं... हमारी दुनिया में हमारी मर्जी के बिना कोई नहीं आ सकता... कोई भी नहीं... लेकिन हम दूसरों की दुनिया में बिना इजाज़त घुसे चले जाते हैं... दरअसल हम दूसरों को, उनके जीवन को, उनकी भावनाओं को अपने मुताबिक कंट्रोल करना चाहते हैं... और यहीं से शुरुआत होती है सारी तकलीफों की.... हमें दूसरों पर कंट्रोल पाने की आदत से छुटकारा पाना होगा... इस आदत को बदलना होगा... और जैसे जैसे हम ऐसा करते जायेंगे हम खुद ब खुद उस मंज़िल की तरफ आसानी से बढ़ते जायेंगे जिसे हासिल करने के लिए हम इस दुनिया में आये हैं... हम सिर्फ खुद पर कंट्रोल रख सकते हैं... दूसरों पर कंट्रोल पाने की फितरत छोड़नी होगी... जैसे हम चाहते हैं कि हमें अपने मन मुताबिक जीवन जीने का मौका मिले, वैसा हीं मौका हमें दूसरों को भी देना होगा... वरना नुकसान सिर्फ सामने वाले का नहीं, खुद हमारा भी होगा...

Sunday, May 3, 2009

!!! ये शहर काति़ल है !!!

(बड़े शहर में आये कुछ हीं साल गुज़रे हैं.... लेकिन अमूमन जब भी दोस्तो से या खुद से बातें करता हूं तो अनायास हीं ये बात मुंह से निकल जाती है कि 'मुझे ये शहर पसंद नहीं...'
एक दिन शांत दिमाग से बैठकर सोचा कि जिस शहर ने इतना दिया वो मुझे पसंद क्यों नहीं....??? जवाब नीचे लिख रहा हूं....हालांकि ये बताना भी लाज़मी है कि लिखते वक्त बैकग्राउंड में 'ये दिल्ली है मेरे यार' गाना भी चल रहा है...)


एक लाश पड़ी है
चारों तरफ भीड़ खड़ी है
सब शांत हैं, हैरान हैं, परेशान हैं
पर उनमें भी बाकि बची कहां जान है
और वो लाश जिसपर सबकी नजर है
वो मेरी है
लेकिन कातिल कोई इंसान नहीं बल्कि ये ‘शहर’ है


छोटे शहर के बड़े सपने, और ये महानगर
जाने कितनों को मार दिया जिन्दगी में घोल के जहर
रिश्ते-नाते…... इनके बिना जिंदगी अधूरी थी
यहां तो बिन काम किसी से मिलना मानो मजबूरी थी
राम हूं... राम हूं... सीता मिलेगी
इस बात का जाने कितना हल्ला मचाया
पर यहां तो हर सीता को
पांचाली बना पाया
हर रोज़ की महाभारत ने मेरा राम भी मार दिया
और चूं-चपड़ की तो Modern Culture का तीर धनुष तान दिया

यहां मां Mom तो पिता Pop है
बेटी बड़ी है, लेकिन बाप के सामने पहना डेढ़ बीत्ते का Top है
सब दिख रहा है.....पर किसे ???
इस सवाल का जवाब ढूंढे नहीं मिल रहा है

पूरा शहर वृंदावन बना है
हर प्रेमी जोड़ा कृष्ण और राधा है
फिज़ा में प्यार तो है
पर जो तब था और अब नहीं है वो मर्यादा है


दुपहिये पर पीछे बैठने वाली हर लड़की Girl Friend है
बहन को साथ घुमाना कहां आज का Trend है
यहां सब प्रैक्टिकल हैं... कूल हैं.....
और जो रिश्तों को दिल से लगाये
वो यहां इमोशनल Fool हैं

यहां Virgin होना शर्मनाक है
हमारे यहां को तमगा यहां छुपाने की बात है
बोलते हिंदी हैं
पर जब करना कुछ गलत हो तो उसे अंग्रेजी में ढ़ालते हैं
रेव पार्टी, वाइफ स्वैपिंग या Escort
यहां किसी को नहीं सालते हैं
मैं तो देख-देख हीं मर गया
पर इनके लिए.. इनके लिए तो यही जिन्दगी है शायद…


इसी महानगर में 14 साल की एक बच्ची मरी
साल की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री की खबर बनी
बाप ने मारा.... नौकर ने मारा.....
हत्यारा ढूंढने के लिए आज भी मचा है कहर
लेकिन गौर से देखो
उस जैसे कितनों को मारकर
मुस्करा रहा है ये कातिल शहर...........