Thursday, September 24, 2009

रिश्ते मुझे उलझाने लगे हैं........

रिश्ते आजकल मुझे उलझाने लगे हैं... कई बार समझ में नहीं आता कि कौन सा रिश्ता किस मकसद से है... कई बार तो ये भी समझ में नहीं आता कि क्या हर रिश्ता किसी न किसी मकसद से होता है... औऱ अगर नहीं तो फिर क्या कोई भी बेवजह हीं जिन्दगी में आकर चला जाता है... संभव नहीं लगता... क्योंकि हम सब बिना वजह तो इस दुनिया में नहीं हैं... तो फिर बिना मकसद किसी की जिन्दगी में कैसे घुस सकते हैं और बिना मकसद किसी की जिन्दगी से कैसे निकल सकते हैं... रिश्तों के तारों को जितना सुलझाने की कोशिश कर रहा हूं ये उतने उलझते जा रहे हैं...

दूसरी एक बात जो आजकल परेशान कर रही है वो ये कि रिश्तों में उम्मीदें पालना सही है या नहीं... यानि कि एक्सपेक्टेशन... बिना उम्मीद के रिश्ते में से जान नहीं चली जायेगी... ??? पता नहीं... लेकिन कई बार ठोकर खाकर लगता है कि क्यों लगाई थी उम्मीद... पर फिर यही उम्मीदें किसी के करीब भी ले जाती हैं...हाल हीं में एक दोस्त के हमेशा सच बोलने की नौटंकी का पर्दाफाश हुआ... वो भी कुछ ऐसे अंदाज में कि सोचा न था... दिमाग झन्ना सा गया... समझ में हीं नहीं आ रहा था कि ये कैसे हो सकता है... और क्यों वो शख्स इतने दिनों तक झूठ बोलता रहा... समझ से परे था मेरे लिए सबकुछ... लेकिन दिमाग जोड़ घटाव करने में लगा रहा कि ऐसा हो कैसे गया... जब दिमाग कि नसें दुखने लगती तो खुद को समझा लेता कि यार... तुम्हें उम्मीद हीं नहीं पालनी चाहिए थी... लेकिन फिर मन में सवाल आया कि बिना उम्मीद रिश्तों का रस खत्म नहीं हो जायेगा... थोड़ी बहुत उम्मीद तो बनती है... और सच बोलना किसी उम्मीद के दायरे में तो नहीं आता...

फिर अचानक खबर मिली एक दोस्त की मां की तबीयत बहुत खराब होने की... डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है... सन्न खड़ा रह गया मैं थोड़ी देर के लिए सुनकर ... मैं किसी करीबी को खोने का गम जानता हूं... और शायद यही आंकलन करने लग गया था कि क्या होगा जब उसकी मां नही होगी... फिर एक सवाल कौंधा... कि क्या बेहतर है... किसी आदमी का मर कर हमारे जीवन से चले जाना... जिसमें वापसी की कोइ उम्मीद नहीं रहती या किसी शख्स का जीवित रहते हुए हमें छोड़ कर चले जाना... जिसमें हर लम्हा इंतजार में बीतता है... मुझे तुरंत जवाब नहीं मिला... क्योंकि मैंने दोनों परिस्थितियां झेली हैं... जब मेरे पिता मेरे जीवन से गए तो मैं अक्सर ये सोचता था कि कोई अभी दौड़ा दौड़ा आयेगा और कहेगा कि वो अब भी जिन्दा हैं... जो लाश मैंने देखी थी वो किसी और की थी... औऱ सब अच्छा हो जायेगा... लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ... पर इंतजार उस दौड़ कर आते शख्स का आज भी है... साथ हीं मैंने कई करीबी लोगों को जीवन में दूर जाते भी देखा... वैसे लोग जो जिन्दा हैं... जीवन के किसी मोड़ पर शायद कभी मिल भी जायें... पर उनसे मिलने की उम्मीद भी कम कसक पैदा नहीं करती... पर तय करना मुश्किल है कि दर्द किसमें ज्यादा होता है....

खैर इतना जरूर है... कि रिश्ते मुझे उलझा रहे हैं... कई बार तो ये भी समझ नहीं आता कि क्या रिश्तों में नाप-तोल कर बोलना, सच-भूठ का परसेंटेज तय करना... ये सब हो सकता है क्या... क्यों हर रिश्ता इतना उलझा है... समझ नहीं आ रहा.....................................