Wednesday, October 27, 2010

बरगद का 'वो' पेड़...

किसी बेहद करीबी ने हाल में हीं अपनी रचना के ज़रिए समझाया कि हर रिश्ता नाज़ुक फूल की तरह है... रचना में लिखा था कि अगर प्यार ना मिले तो फूल मुरझा जाता है... बात उम्दा लगी... समझ में भी आयी... लेकिन कुछ सवाल छोड़ गयी अंदर... मसलन, क्या फूल के मुरझाने का दर्द सबसे ज्यादा उस फूल को होता होगा या उस माली को जिसने न जाने कितने जतन से उस फूल को बीज से फूल तक का सफर तय करते देखा है... क्या माली का भी अपना दर्द होता होगा जिससे उसने फूल को हमेशा दूर रखा होगा... क्या माली भी कभी फूल से कुछ चाहता होगा... कुछ ऐसे हीं सवाल... लेकिन जो बात कही गयी थी वो पते की लगी तो ज़हन में उतार ली...लगा, जैसे एक फूल कितना कुछ कह सकता है...

फिर, एक दिन दफ्तर में ना जाने कितने सालों से चट्टान की तरह खड़ा रहने वाला बरगद का पेड़ धराशायी हो गया... पेड़ इतना बड़ा था कि गिरा तो यकीन नहीं हुआ कि एक आंधी की मार ने उसे हिलाया हो... पर चर्चा इसी बात की हो रही थी तो सबने मान लिया कि आंधी की ताकत उस एक वक्त पर ज्यादा रही होगी... मेरा मन नहीं माना... आते-जाते, गुज़रते हमेशा उस पेड़ को देखा करता... हर शाम सुनायी देने वाली , न जाने दिनभर का कौन सा काम निपटाने के बाद लौटने वाली सैंकड़ों चिड़ियों की चहचहाहट अनायास याद आ जाती... क्योंकि मैं भी अमूमन उसी वक्त टहल टहल कर फोन पर बात करता और शायद मेरी बातचीत वो सुनते और उनकी मैं... मैं कई बार डिकोडिंग करने की कोशिश भी करता कि क्या कोइ चिड़िया अपने दिन भर का दर्द बता रही होगी किसी दोस्त को, तो कोइ नन्ही चिड़िया मां से खाना मांग रही होगी, तो किसी पति-पत्नि में झगड़ा हो रहा होगा कि आने में इतनी देर क्यों हुई... वगैरह-वगैरह....

पर सवाल ये था कि इतना मज़बूत दिखने वाला बरगद का 'वो' पेड़ गिर कैसे गया... और जवाब भी जल्द हीं मिल गया...
एक दिन पेड़ के जड़ के हिस्से को देखा तो दिखा कि पेड़ तो अन्दर हीं अन्दर बिलकुल खोखला हो चुका था... जड़ें हिल चुकी थीं... बाहर से मज़बूती की मिसाल दिखने वाला 'वो' पेड़, अंदर से कमज़ोरी की दास्तान बयां कर रहा था...

और फिर एक ख्याल आया... कितने हीं ऐसे लोग हैं जो बाहर से यूं ही मज़बूत नज़र आते हैं... हर वक्त लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाने वाले और उनमें ऊर्जा भरने वाले 'वो' लोग जो कब अंदर हीं अंदर खोखले होते जाते हैं, किसी को पता नहीं चलता... खुद के खोखलेपन से दूर रखकर कभी छांव, तो कभी पनाह देने वाले उस बरगद के पेड़ का दर्द भी शायद यही था कि उसके अंदर कोई झांक नहीं पाया... लोगों की उसकी छांव दिखती, उसकी खूबसूरत हरी पत्तियां दिखतीं, उसपर गुलज़ार घरौंदे दिखते, उसकी भव्यता दिखती लेकिन अंदर हीं अंदर उसे क्या खाए जा रहा था... किसी को ना दिखता...

एक दिन बरगद का 'वो' पेड़ गिर गया... और अब 'वो' कभी नहीं उठेगा... पर सवाल रह रह कर मन में उठ रहा है...
फूल का मुरझाना तो दिख जाता है पर बरगद के उस पेड़ का अंदर हीं अंदर खोखला हो जाना क्यों नहीं दिख पाता... ???

Saturday, October 23, 2010

आखिर क्यों....

(आजकल बहुत से लोग, जो मुझे अरसे से जानते हैं, कहते हैं मैं बहुत बदल गया हूं... बहुत चुप हो गया हूं... बोलता नहीं... जब लिखने बैठा था तो लगा था कि बहुत कुछ कह पाउंगा लेकिन यहां भी शब्दों के जरिए भी बहुत कम हीं कह पाया... न जाने क्या हुआ और बस आधा-अधूरा लिखकर खत्म कर दिया... यहां भी बोल नहीं पाया... :-(


पूरे चांद की रात है,
सन्नाटे का साथ है...
घर की मुंडेर पर खड़ा ताक रहा हूं
शायद खुद में हीं झांक रहा हूं...

गुलाबी ठंड लिए हवा अभी बगल से गुज़री है
पर मन तो न जाने कब से जमा है
सब चल रहे हैं, बढ़ रहे हैं
पर मेरा तो हर हिस्सा जैसे वहीं थमा है...

जीवन के अनुभवों से छलनी अंतर्मन से
मानों सवाल रिस रहे हैं

सवाल, जो पूछते हैं

सबकुछ यूं हीं कब तक चलेगा
मुझको जो पढ़ ले, ऐसे किसी का ना होना कब तक खलेगा
हर लम्हा दूसरों के मुताबिक क्यों ढ़लेगा
जो हर पल जिए मुझे, वो कब मिलेगा........

और भी न जाने कितने सवाल
जवाबों के सूखे ने
जीने की लालसा को बंजर बना डाला है
औऱ अब तो सिर्फ यही पूछता हूं
क्यों... आखिर क्यों....

Sunday, April 18, 2010

आखिरी बार कब......?

मेरा सवाल थोड़ा अजीब जरुर लगे पर मैं यही पूछना चाहता हूं कि,आखिरी बार कब नहाए थे आप... ???
मुझे यकीन है कि जवाब आज, अभी या दिन में कई बार हीं होगा आपमें से ज्यादातर लोगों का और इतनी गर्मी में भी अगर कोई ऐसा है जो जवाब कल,परसों या कुछ दिन पहले... के तौर पर दे सकता है तो वो चरणस्पर्श योग्य है...(इतनी गर्मी में पसीने से नहाने के बाद भी पानी से नहाने का मन ना करे जिसका उसके पैर तो छू हीं लेने चाहिए... बिरले मिलते हैं ऐसे महापुरुष जो दुनिया के लिए पानी बचाने के लिए कुछ भी सह जाते हैं...)

खैर, अब मैं सवाल फिर पूछता हूं लेकिन थोड़ा बदलकर... सवाल वही है, कि आप आखिरी बार कब नहाए थे... ??? वो कौन सा दिन था जब आप नहाते वक्त सिर पर पड़ी पानी की पहली बूंद को महसूस कर पाए थे... ??? वो कौन सा दिन था जब नहाते वक्त पानी और शरीर के दूसरे अंगों का आपसी आलिंगन महसूस किया था... ??? वो कौन सा दिन था जब पानी की ठंडक या गर्माहट को रुह तक का रास्ता तय करते देखा था... ???

हो सकता है कईयों को याद ना हो क्योंकि ये एक बड़ा सच है... जब हम नहा भी रहे होते हैं तो कुछ न कुछ सोच रहे होते हैं... पानी,सिर पर गिरकर बदन पर से होता हुआ कब नाली में चला जाता है, पता तक नहीं चलता... क्योंकि शरीर तो नहा रहा होता है लेकिन मन ख्यालों के रेगिस्तान में भटक रहा होता है...
और ये बात सिर्फ नहाने के लिए लागू नहीं होती... आप खुद से सवाल पूछ सकते हैं कि आखिरी बार कब खाए थे... ? या यूं कहिए कि आखिरी बार कब खाने के हर निवाले को महसूस किया था.... ???
आखिरी बार ड्राइविंग कब की थी... ??? आखिरी बार बात-चीत कब की थी, क्योंकि बात-चीत के दौरान भी वहां न होना बहुत आम हैं... कमी वक्त की नहीं है... फितरत बन गयी है ये हम सब की...

शरीर कहीं, मन कहीं... लेकिन आज हीं एक दोस्त ने अपने पिताजी की बात समझाई कि इंसान की सबसे बड़ी लड़ाई खुद से है,किसी और से नहीं... दरअसल हम इस दुनिया में दूसरों को खुद के मुताबिक देखना चाहते हैं... दूसरों के जीवन पर पूर्ण अधिकार चाहते हैं लेकिन खुद पर हमारा वश नहीं है... हम खुद पर हीं जीत हासिल नहीं कर पाते... मन का भटकाव भी इसी की वजह से है क्योंकि जो हम चाहते हैं उसका आवेग इतना है कि मन पर के नियंत्रण को ध्वस्त कर देता है... और इसीलिए जरुरत है मन को जीतने की...
बहुत मुश्किल है... बहुत हीं ज्यादा मुश्किल... लेकिन जो जीत गया... वो फिर जिन्दगी में कभी नहीं हारता... हम मन से नहीं हैं बल्कि मन हमसे है... लेकिन वास्तविक्ता बिलकुल उलट है इससे... और इसीलिए ज्यादातर वक्त हम खुद के साथ हीं नहीं होते... कई बार जिस समस्या को, सोचने का 10 फीसदी हिस्सा देना है उसे 90 फीसदी का अधिकार देकर न सिर्फ उस समस्या को बड़ा बनाते हैं बल्कि बाकि उलझनों को छोटा कर उनके परिणामों को भी बड़ा कर देते हैं...

इसलिए जरुरी है कि मन पर काबू पाया जाए... औऱ इसके लिए जरुरी है कि सच को नज़रअंदाज़ ना करें... कहते हैं झूठ के पांव नहीं होते और इसीलिए वो ज्यादा दूर चल नहीं पाता लेकिन सच हमेशा साथ निभाता है... मन की फितरत की वजह से कई बार हम सच को देख रहे होते हैं लेकिन दूसरी तरफ वो भी नज़र आता है जो क्षणिक है, आकर्षक है और मन का है और शायद बाद में तकलीफ देने वाला भी... पर हम सच को कोने की नज़र से देखते हुए भी उस तरफ बढ़ जाते हैं जिधर मन ले जाता है और वहीं से परेशानियों का रास्ता शुरु होता है...

मन की सुनिए लेकिन सत्य को अनदेखा भी न किजिए... मन काबू में होगा तो नहा भी पाएंगे, खा भी पाएंगे और खुद के साथ वक्त भी बिता पाएंगे... और हां, खुद को जीत भी पाएंगे...

Thursday, April 8, 2010

तुम...

तुम...
मेरा प्यार ,
मेरा उद्गगार,
मेरा संघर्ष भी
मेरा हर्ष भी
मेरी कमी,
मेरी संपूर्णता
मेरी बुद्दिमानी
मेरी मूर्खता

तुम...

मेरा हर पल
मेरा कौतूहल
मेरी बेचैनी
मेरा करार
मेरा किनारा
मेरी मझदार

तुम...

आंसूओं से भीगी पलक भी
खुशी की झलक भी
तुम विरह
तुम मिलन भी
तुम तन मेरा
तुम मन भी
बिन तुम
सब गुमसुम
कभी तुम कहीं नहीं
और कभी हरकहीं
जाने कैसे तुम्हे समझाउं
तुम बिन
मैं कुछ भी नहीं...

Wednesday, February 24, 2010

रिश्तों में 'एक्सपेक्टेशन' नहीं होनी चाहिए

('मन' के कोने में दबी ये भावनाएं दरअसल मेरी नहीं बल्कि मेरे दोस्त नीरज की हैं... पेशे से अपना बिज़नेस चला रहे नीरज बेहद सुलझे हुए वय्क्तित्व हैं... उन्होंने कुछ लिखा तो मुझे ये कहकर भेजा कि इसे अपने शब्दों में खूबसूरत बना कर अपने ब्लॉग पर डालना लेकिन उनकी भावनाएं उनके हीं शब्दों में शब्दश: डाली हैं... क्योंकि ब्लॉग का नाम हीं 'मन' है और मन की बातें खूबसूरत या बदसूरत नहीं होती... वो सिर्फ सच्ची होती हैं... इसीलिए इस लेख की सच्चाई को बरकरार रहने दिया है... उम्मीद है नीरज ऐसा हीं बेहतर लिखते रहेंगे... शुभकामनाएं... :-))


जब आप किसी से अपना रिश्ता बनाते हैं तो उससे कोई एक्सपेक्टेशन या शर्त नहीं जुड़ी होती है... आप ये सोचकर किसी रिश्ते में नहीं जाते कि वो इंसान आपके लिए ऐसा करेगा या वैसा... आप उस रिश्ते में इसलिए जाते हैं क्योंकि वो आपको अच्छा लगता है... आप उसके साथ रहना चाहते हैं या वक्त बिताना चाहते हैं... पर समय के साथ जैसे जैसे आप उस इंसान के करीब आने लगते हैं आपके एक्सपेक्टेशन की लिस्ट लंबी होने लगती है... ऐसा क्यों होता है ???

आपने इस शर्त पर तो रिश्ता नहीं बनाया था... पर आप फिर भी चाहते हैं कि सामने वाला इंसान आपकी सारी इच्छाओं को पूरा करे... और जहां एक्सपेक्टेशन की बात आती है, रिश्ते कमज़ोर पड़ने लगते हैं...

रिश्तों का अपना महत्व होता है... अगर आप किसी से प्यार करते हैं और उसके साथ रहना चाहते हैं तो उसे अपनी इच्छाओं में ना बांधें... इससे दूरियां बढ़ने लगती हैं... प्यार या रिश्ते शर्तों पर नहीं बनाये जा सकते... अगर आप सच्चे मायनों में रिश्तों को जीना चाहते हैं तो एक दूसरे का सहारा बनने की कोशिश किजिए... ना कि एक दूसरे को अपने मुताबिक बदलने की कोशिश करें... अगर आप बिना एक्सपेक्टेशन या शर्त के एक दूसरे का साथ देंगे तो आपको खुद महसूस होगा कि आपकी सारी एक्सपेक्टेशन पूरी हो रही है... और फिर हर रिश्ता आपको सुंदर लगेगा क्योंकि उसकी खूबसूरती बदलते वक्त के बावजूद कायम रहेगी...

Saturday, February 20, 2010

जीवन का 'निर्मल' सच-- अलविदा

4 फरवरी 2010--- जाने माने एक्टर निर्मल पांडे या जैसा कि मैं उन्हें बुलाता था, निर्मल दा, लाइव इंडिया के कैम्पस में मौजूद सिगरेट का कश लगा रहे थे... मैंने गाड़ी पार्किंग में खड़ी की और उनका गले लगाने का चिर परिचित अंदाज़ मानों मेरा इंतज़ार कर रहा था.... बातचीत हालचाल पूछने से शुरु हुई औऱ फिर उन्होंने ज़िक्र छेड़ा कि वो बहुत जल्द कुछ बहुत बड़ा करने जा रहे हैं.... दुआ सलाम के बाद हम दोनों अपने अपने काम में लग गए....


18 फरवरी 2010--- लाइव इंडिया का मेकअप रुम... मैं मेकअप ले रहा था तभी साथ कि कुर्सी पर बैठी एक रिपोर्टर के पास किसी का फोन आया... उसका चौंकने वाले अंदाज़ में कहना कि 'क्या निर्मल पांडे मर गए'... मुझे भी चौंका गया... तेज़ी से मेकअप कर रहे मेरे हाथ एकदम से रुक गए... चेहरा,हाथ और दिल तीनों कान के रास्ते आने वाली उस आवाज़ का इंतज़ार करने लग गए जो ये बताती कि ये सिर्फ एक भद्दा मज़ाक था... लेकिन वो आवाज़ नहीं आयी, कभी नहीं....

20 फरवरी 2010--- ब्लॉग पर ये सब लिखते लिखते सबकुछ याद आ रहा है... निर्मल दा कि मौत की खबर सुनने के बाद जितना मैं सकते में था उतना हीं शायद कुछ और लोग भी... एक को-एंकर थोड़े हीं देर बाद टेलीविज़न की दुनिया की कुछ मनोरंजक खबरें सुना रहीं थीं लेकिन चेहरे पर भाव अब भी निर्मल दा के साथ थे शायद और इसीलिए वो सहज नहीं दिख रही थी... चेहरे से मुस्कान गायब थी उसकी... मजबूरन उसे स्टूडियो में जाकर याद दिलाना पड़ा कि हम सिर्फ एंकर नहीं, ऐक्टर्स भी हैं... जो हमें देख रहे हैं उन्हें नहीं पता कि हमारी जिन्दगी में क्या चल रहा है... और जैसे एक ऐक्टर के लिए शो चलता रहता है और दुनिया को कभी उसके दर्द का पता नहीं चलता... कुछ वैसे हीं हम एंकर्स का भी काम है... यकीन मानिए, आंसू और तकलीफ छुपाकर मुस्कुराते हुए 'नमस्कार' बोलने से बड़े चैलेंज कम हीं होंगे....

खैर, इन सबके बीच, निर्मल दा का शुक्रिया भी... इसलिए क्योंकि उन्होंने हमेशा प्यार दिया और सहज बने रहना तो सिखाया हीं, साथ हीं जाते जाते भी जीवन का सबसे 'निर्मल' सच बता गए और वो सच है.... 'अलविदा'... चार तारीख को मेरी दीवानगी नाम के कार्यक्रम में एंकर लिंक शूट करते वक्त उन्होंने कार्यक्रम के अंत में कहा था 'अलविदा'... लेकिन इस बात से अंजान कि ये कैमरे के सामने शायद उनका आखिरी 'अलविदा' है... या फिर यूं कहें कि दुनिया को आखिरी 'अलविदा'... जीवन का सबसे बड़ा सच यही है शायद... उसकी अनिश्चितता... उसकी Uncertainity... किसी को नहीं पता कि वो अगले कुछ मिनटों का मेहमान है यहां, कुछ घंटों का, दिनों का, महिनों का या फिर सालों का... लेकिन सब पागल हुए जा रहे हैं अपने अगले न जाने कितने सालों कि चिंता में... कुछ ऐसे भी हैं जो बीते सालों को हीं सहेजने में जुटे हैं... लेकिन निर्मल दा ने जिस निर्मल सत्य से रुबरु करवाया वो यही कहता है कि जिन्दा सिर्फ ये एक लम्हा है... वो एक लम्हा जिसमें मैं ये ब्लॉग लिख रहा हूं... और वो एक लम्हा जिसमें आप ये ब्लॉग पढ़ रहे हैं... सच से आंखें मोड़ना हीं इंसान को झूठा बना देता है... और ये झूठ तो इतना खतरनाक है कि हम सोच भी नहीं सकते... किसके अलविदा कहने का वक्त कब आ जाए, क्या पता... और इसलिए अलविदा कहने के पहले वो सबकुछ कहो जो हमेशा से अपने करीबियों या प्यार करने वालों को कहना चाहते थे... वो सबकुछ करो जो करना चाहते थे... वो सबकुछ देखो जो देखना चाहते थे... वो सबकुछ सुनो जो सुनना चाहते थे... ताकि अलविदा कहो भी तो शान से... और दिल में किसी 'काश...' के लिए कोई जगह ने बचे....

आप और आपकी सीख हमेशा याद रहेगी निर्मल दा... फिलहाल के लिए आपको अलविदा... हम फिर मिलेंगे... :-)

Thursday, February 11, 2010

जिन्दगी के Exams

कई बार परेशानियां और मुश्किल वक्त हौसला डिगाने का ज़रिया बनते हैं और कई बार खुद को ढूंढ निकालने का माध्यम.... मेरे साथ दोनों ही हुआ... पहले हौसला डिगा और जब खुद को शांत रखकर वक्त और हालात को समझने की कोशिश की तो खोए हुए खुद को भी पा लिया.... लेकिन साथ हीं कुछ और भी था जो मिल गया... शायद तोहफे की तरह... एक समझ, जो जिन्दगी को देखने का नया नजरिया दे गयी....

मैंने पाया कि जिन्दगी में हमें स्कूल या कॉलेज की हीं तरह कई Exams देने पड़ते हैं... Exam पास किया तो आगे बढ़ते हैं वरना उसी क्लास में रहना पड़ता है औऱ Exam फिर से देना पड़ता है.... थोड़ा और समझाने की कोशिश करुं तो मतलब ये कि जिन्दगी एक टीचर की तरह है और हम स्टूडेंट... जिन्दगी कुछ न कुछ सीखा रही है... औऱ सीखाने का बाद वो टेस्ट लेती है कि हमने वाकई सबक सीखा या नहीं.... और जब तक हम उस टेस्ट को पास नहीं कर जाते हम बार बार वैसी हीं परिस्थितियों का सामना करते हैं जिन्दगी में.... यानि उसी क्लास में अटके रहते हैं...

उदाहरण के तौर पर... मान लिजिए आप एक रिश्ते में हैं....यानि रिलेशनशिप में या फिर कहूं कि प्रेम में.... रिश्ता चल रहा है... पर रिश्ता टूटता है... ज़ाहिर है, कमियां या गलतियां दोनों तरफ से रही होंगी... और आप ऐहसास करते हैं कि बस बहुत हो गया, अब और नहीं... और आप अलग हो जाते हैं.... ये एक आम उदाहरण है... लेकिन जिन्दगी के लिहाज़ से, जिन्दगी आपको कुछ सीखा रही थी और उस रिश्ते का बुरा वक्त उस टेस्ट की तरह था जो उस जोड़े को पास करना था... पर वो टेस्ट फेल कर गए... मतलब ये कि अब दोनों प्यार की क्लास में हीं रह जायेंगे... वो अगली क्लास तक नहीं जा सकते.... उन्हें पहले ये टेस्ट पास करना हीं होगा.... और इसलिए जिन्दगी, कुछ महीनों बाद या कुछ सालों बाद एक बार फिर दोनों की जिन्दगी में किसी न किसी को लेकर आयेगी... और आपको फिर इम्तिहान देना होगा... इस बार Question Paper अलग हो सकता है लेकिन सिलेबस वही होगा... और यकीन मानिए,अगर आप फिर फेल हुए...तो नतीजा वही होगा... आपको फिर एक रिश्ते से गुजरना हीं होगा और ये रिश्ता तबतक जारी रहेगा जबतक की आप ये साबित नहीं कर देते कि हां, आप सबक सीख चुके हैं... यानि आप पास हो गए हैं....

इसलिए, इन Exams में फेल होने के बाद रोने, तड़पने, खुद को कोसने से बेहतर हैं खुद को सच को मानने के लिए तैयार करना कि हां, आप फेल हो चुके हैं... क्योंकि फेल होना कतई बुरा नहीं है... बुरा है सबक को ना सीखना या यूं कहूं कि फेल होने की वजह को नज़रअंदाज़ कर देना... लेकिन फेल होने का फायदा ये भी है कि आप उस पूरे सिलेबस को फिर से पढ़ पाएंगे और बेहतर समझ के साथ Exam दे पायेंगे... बशर्ते कि आप ऐसा चाहते हों... ज्यादातर लोग रोने-धोने और मातम मनाने में और वक्त में फंसे रह जाने में हीं इतना वक्त बिता देते हैं कि अगला Exam सिर पर आकर खड़ा होता है और आप इस बात को समझ भी नहीं पाते कि आप फेल दरअसल हुए क्यों थे....

ऐसे Exams जिन्दगी के हर मोड़ पर हम सब को देने हैं.... आगे बढ़ना है तो क्लास को पास करना हीं होगा... इम्तिहान में पास होना हीं होगा... नहीं होंगे, तो दुबारा Exam देना हीं होगा... इसलिए, सच को मानकर, समझकर, खुद को संभालकर औऱ जिन्दगी क्या और क्यों सीखा रही है इसका आंकलन करते हुए हीं आगे बढ़ना होगा हमें.....

Friday, January 8, 2010

गब्बर के साथ नाइंसाफी करने वाले हैं 'इडियट'

इडियट तीन और गब्बर एक.... बहुत नाइंसाफी है....
जी हां... सचमुच गब्बर के साथ नाइंसाफी हो रही है... हां, हां... वही शोले वाला गब्बर... दरअसल, आजकल थ्री इडियट्स की चर्चा आम है... जिसे देखो, इसे आजतक की सबसे कमाल की फिल्म बताने में जुटा है... कुछ पंडितों ने तो गब्बर तक को नहीं बख्शा और कह डाला कि आमिर की फिल्म 3 इडियट्स तो शोले की भी बाप है... औऱ जब तर्क वितर्क की बारी आयी तो आंकड़ों की जादूगरी दिखाने लगे... कह डाला कि इतने कम दिनों में तीन इडियट्स ने बाक्स ऑफिस पर तकरीबन 284 करोड़ का डाका डाला लेकिन जबकि गब्बर क्या, जय-वीरु और पूरे रामगढ़ की भी औकात नहीं थी कि इतनी कमाई कर पाते, इतने कम दिनों में....

एक बारगी सुनों तो सबकुछ सच लगता है लेकिन कुछ बातों पर गौर करें तो साफ हो जाएगा कि इडियट्स की तादात तीन नहीं बल्कि कहीं ज्यादा है...

सबसे पहली बात तो ये कि जब शोले रिलीज़ हुई थी,यानि की साल 1975 में तब टिकट के दाम हुआ करते थे एक या दो रुपए... और आज किसी भी शहर में टिकट की कीमत 150 रुपए से कम नहीं है.... तो फिर दोनों की कमाई की तुलना कैसे हो सकती है.... यानि बहुत साफ है कि जहां शोले के 1000 टिकट बिकने पर 1 या 2 हजार रुपए की कमाई होती होगी वहीं 3 इडियट्स के हज़ार टिकट 1.5 लाख का रेविन्यू जेनरेट करते हैं... तो तुलना हीं बेमानी है....

दूसरी बात ये कि शोले के ज़माने में थियेटर गिने चुने होते थे.... आजकल मल्टीप्लेक्सेस का ज़माना है... अब आप हीं सोचिए की 1975 के ज़माने के 150-200 सीटों वाले (वो भी खटमल और स्प्रिंग निकले हुए सीटों वाले) सिनेमा घरों में फिल्म देखने वालों की तादात और आज के अनगिनत मल्टीप्लेक्सेस में फिल्म देखने जाने वालों की संख्या में ज़मीन आसमान का फर्क होगा या नहीं....

तीसरी बात.... 70 के दशक में ज्यादातर घरों में फिल्म देखना पाप के समान था... अगर फिल्म देखी भी जानी है तो पूरा परिवार साथ जाकर देखेगा और वो भी संतोषी मां या कोई और धार्मिक फिल्म है तो बात कुछ और है... शोले जैसी फिल्म में अर्धनग्न हेलन के डांस से तो ज्यादातर परिवार हाय-तौबा करते थे.... लेकिन आजकल तो ए सर्टिफिकेट वाली फिल्में भी खुलेआम और धड़ल्ले से देखी जाती है... वो भी परिवार के साथ... फिल्म देखना शौक कम... जरुरत ज्यादा बन गया है... क्योंकि बड़े शहरों में मोटी कमाई करने वाले लोग रिलैक्स होना चाहते हैं...

चौथी बात.... गब्बर क्या, गब्बर के बाप ने भी सात समंदर पार रिलिज़ होने के बारे में नहीं सोचा होगा कभी उस ज़माने में... पर ये तीन इडियट्स तो हंसते-खेलते और उछलते हुए चले गए विदेश और कमा रहे हैं करोड़ों... अब बताइए... देसी गब्बर और मल्टीनैश्नल 3 इडियट्स की तुलना बेईमानी नहीं है....

हां, इतना जरुर है कि पायरेटेड सीडी की मार गब्बर ने नहीं झेली थी... जो थ्री इडियट्स झेल रहे हैं... पर बावजूद इसके कमाई के तौर पर दोनों की तुलना नहीं की जा सकती.... साथ हीं, दोनों फिल्मों का फ्लेवर भी बिलकुल जुदा है... एक्शन से भरपूर शोले का और थ्री इडियट्स का कमपैरिज़न कुछ वैसा हीं है जैसे आप चिकन बिरयानी और गुलाब जामुन का कमपैरिज़न करें.... संभव हीं नहीं है....

और ऐसे में सच यही है कि गब्बर आज भी इन तीन इडियट्स का बाप है... और सिर्फ आंकड़ों के आधार पर गब्बर को रुलाने वालों को खुद गब्बर हाथ में दोनाली बंदूक लिए ढूंढ़ रहा है और पूछ रहा है कि बताओ.. कितने इडियट्स थे... और शायद जवाब है.... सरदार 'अनगिनत'...