Wednesday, October 27, 2010

बरगद का 'वो' पेड़...

किसी बेहद करीबी ने हाल में हीं अपनी रचना के ज़रिए समझाया कि हर रिश्ता नाज़ुक फूल की तरह है... रचना में लिखा था कि अगर प्यार ना मिले तो फूल मुरझा जाता है... बात उम्दा लगी... समझ में भी आयी... लेकिन कुछ सवाल छोड़ गयी अंदर... मसलन, क्या फूल के मुरझाने का दर्द सबसे ज्यादा उस फूल को होता होगा या उस माली को जिसने न जाने कितने जतन से उस फूल को बीज से फूल तक का सफर तय करते देखा है... क्या माली का भी अपना दर्द होता होगा जिससे उसने फूल को हमेशा दूर रखा होगा... क्या माली भी कभी फूल से कुछ चाहता होगा... कुछ ऐसे हीं सवाल... लेकिन जो बात कही गयी थी वो पते की लगी तो ज़हन में उतार ली...लगा, जैसे एक फूल कितना कुछ कह सकता है...

फिर, एक दिन दफ्तर में ना जाने कितने सालों से चट्टान की तरह खड़ा रहने वाला बरगद का पेड़ धराशायी हो गया... पेड़ इतना बड़ा था कि गिरा तो यकीन नहीं हुआ कि एक आंधी की मार ने उसे हिलाया हो... पर चर्चा इसी बात की हो रही थी तो सबने मान लिया कि आंधी की ताकत उस एक वक्त पर ज्यादा रही होगी... मेरा मन नहीं माना... आते-जाते, गुज़रते हमेशा उस पेड़ को देखा करता... हर शाम सुनायी देने वाली , न जाने दिनभर का कौन सा काम निपटाने के बाद लौटने वाली सैंकड़ों चिड़ियों की चहचहाहट अनायास याद आ जाती... क्योंकि मैं भी अमूमन उसी वक्त टहल टहल कर फोन पर बात करता और शायद मेरी बातचीत वो सुनते और उनकी मैं... मैं कई बार डिकोडिंग करने की कोशिश भी करता कि क्या कोइ चिड़िया अपने दिन भर का दर्द बता रही होगी किसी दोस्त को, तो कोइ नन्ही चिड़िया मां से खाना मांग रही होगी, तो किसी पति-पत्नि में झगड़ा हो रहा होगा कि आने में इतनी देर क्यों हुई... वगैरह-वगैरह....

पर सवाल ये था कि इतना मज़बूत दिखने वाला बरगद का 'वो' पेड़ गिर कैसे गया... और जवाब भी जल्द हीं मिल गया...
एक दिन पेड़ के जड़ के हिस्से को देखा तो दिखा कि पेड़ तो अन्दर हीं अन्दर बिलकुल खोखला हो चुका था... जड़ें हिल चुकी थीं... बाहर से मज़बूती की मिसाल दिखने वाला 'वो' पेड़, अंदर से कमज़ोरी की दास्तान बयां कर रहा था...

और फिर एक ख्याल आया... कितने हीं ऐसे लोग हैं जो बाहर से यूं ही मज़बूत नज़र आते हैं... हर वक्त लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाने वाले और उनमें ऊर्जा भरने वाले 'वो' लोग जो कब अंदर हीं अंदर खोखले होते जाते हैं, किसी को पता नहीं चलता... खुद के खोखलेपन से दूर रखकर कभी छांव, तो कभी पनाह देने वाले उस बरगद के पेड़ का दर्द भी शायद यही था कि उसके अंदर कोई झांक नहीं पाया... लोगों की उसकी छांव दिखती, उसकी खूबसूरत हरी पत्तियां दिखतीं, उसपर गुलज़ार घरौंदे दिखते, उसकी भव्यता दिखती लेकिन अंदर हीं अंदर उसे क्या खाए जा रहा था... किसी को ना दिखता...

एक दिन बरगद का 'वो' पेड़ गिर गया... और अब 'वो' कभी नहीं उठेगा... पर सवाल रह रह कर मन में उठ रहा है...
फूल का मुरझाना तो दिख जाता है पर बरगद के उस पेड़ का अंदर हीं अंदर खोखला हो जाना क्यों नहीं दिख पाता... ???

Saturday, October 23, 2010

आखिर क्यों....

(आजकल बहुत से लोग, जो मुझे अरसे से जानते हैं, कहते हैं मैं बहुत बदल गया हूं... बहुत चुप हो गया हूं... बोलता नहीं... जब लिखने बैठा था तो लगा था कि बहुत कुछ कह पाउंगा लेकिन यहां भी शब्दों के जरिए भी बहुत कम हीं कह पाया... न जाने क्या हुआ और बस आधा-अधूरा लिखकर खत्म कर दिया... यहां भी बोल नहीं पाया... :-(


पूरे चांद की रात है,
सन्नाटे का साथ है...
घर की मुंडेर पर खड़ा ताक रहा हूं
शायद खुद में हीं झांक रहा हूं...

गुलाबी ठंड लिए हवा अभी बगल से गुज़री है
पर मन तो न जाने कब से जमा है
सब चल रहे हैं, बढ़ रहे हैं
पर मेरा तो हर हिस्सा जैसे वहीं थमा है...

जीवन के अनुभवों से छलनी अंतर्मन से
मानों सवाल रिस रहे हैं

सवाल, जो पूछते हैं

सबकुछ यूं हीं कब तक चलेगा
मुझको जो पढ़ ले, ऐसे किसी का ना होना कब तक खलेगा
हर लम्हा दूसरों के मुताबिक क्यों ढ़लेगा
जो हर पल जिए मुझे, वो कब मिलेगा........

और भी न जाने कितने सवाल
जवाबों के सूखे ने
जीने की लालसा को बंजर बना डाला है
औऱ अब तो सिर्फ यही पूछता हूं
क्यों... आखिर क्यों....