Sunday, August 25, 2013

मुंबई को ये क्या हुआ है?

(एक शहर की ख़ुद की क्या पहचान होती है... शहर, कस्बे, गांव और देश... इन सबका अस्तित्व हीं इंसानी इजाद है... फिर एक शहर पर सवाल क्यों.. सवाल तो उनसे होना चाहिए जो वहां रह रहे हैं... उसे बना और बिगाड़ रहे हैं... क्यों बदल रहे हैं वो शहर का हाल... क्यों बना रहे हैं उसे बदसूरत)


कल एक शहर को रोते देखा...

बरसों पुरानी पहचान को खोते देखा..


कभी ना सोने वाला शहर अब भी जाग रहा है...


आज चिंता से आँखों में नींद नहीं,ये मान रहा है..



पर पूछता है एक ही सवाल,


ज़िम्मेदार मैं हूँ या तू है...

झांक ख़ुद में और बता,


कैसे हुआ मेरा ये हाल???

Friday, August 16, 2013

बदल जाते हैं......

तस्वीरें वही रहती हैं, किरदार बदल जाते हैं....
ज़िन्दगी चलती रहती है, हिस्सेदार बदल जाते हैं।
कभी वक्त मिले तो उन किश्तियों की सुनना जो डूब के उबरी हैं,
वो बताएंगी, कैसे वक्त के साथ मझधार बदल जाते हैं।

उन किस्सों से क्या पूछूं जो सवाल पूछते हैं,
अपने उन हिस्सों से क्या पूछूं जो सवाल पूछते हैं,
कहने को है कहां कुछ मेरे पास...
पलट कर जब देखता हूं बीते लम्हों को,
जाने क्यूं जवाब बदल जाते हैं।

धरती और आकाश कब मिले हैं,
पतझड़ में फूल कब खिले हैं,
मिल न सके हम भी लेकिन ग़म नहीं,
मेरी आंखे भी अब नम नहीं,
तू बदला तो क्या बदला
वक्त बीते तो दिन और रात बदल जाते हैं।



Tuesday, July 30, 2013

वो भी नहीं, मैं भी नहीं...
( जैसे नदी के एक किनारे खड़े होकर देखो तो सिर्फ सामने वाला किनारा नज़र आता है वैसे हीं हर रिश्ते में अपना हिस्सा अमूमन नज़र नहीं आता.... और जो अगर दिख जाए तो बीच का फ़ासला नहीं रह जाता)

ग़लतियों से जुदा वो भी नहीं... मैं भी नहीं,
दोनों इन्सां हैं, ख़ुदा वो भी नहीं ... मैं भी नहीं,

हम दोनों एक दूसरे को इल्ज़ाम देते हैं मगर,
अपने अन्दर झांकता वो भी नहीं.. मैं भी नहीं,

लोगों ने कर दिया है दोनों में पैदा इख्तेलाफ़,
वरना... फ़ितरत का बुरा वो भी नहीं... मैं भी नहीं

मुख़्तलिफ़ सिमटों में, दोनों का सफ़र जारी रहा,
एक लम्हे को रुका वो भी नहीं... मैं भी नहीं

चाहते दोनों हैं एक दूसरे को मगर,
ये हक़ीकत मानता वो भी नहीं... मैं भी नहीं ।

Monday, March 18, 2013

" ग़म होते हैं जहां ज़हनत होती है, दुनिया में हर शय की क़ीमत होती है..

  अक़सर वो कहते हैं वो मेरे हैं, अक़सर क्यों कहते हैं हैरत होती है...

  तब हम दोनों वक्त चुराकर लाते थे, अब मिलते हैं जब भी फ़ुरसत होती है..."
(दिल और दिमाग की लड़ाई के बीच जब थोड़ा वक्त बचा तो ये ख़्याल आया कि अगर दिमाग न होता तो दुनिया की कितनी मुश्किलें कम हो जाती... परखने की आदत से निजात मिल जाती... शायद आप भी जब इसे पढ़ेंगे तो एक बार के लिए सहमत हो जाएंगे इस सोच से, लेकिन फिर दिमाग अपना काम शुरु कर देगा और आप तर्क के समंदर में डूबते चले जाएंगे कि दिमाग के न होने जैसी बेफ़ज़ूली की बात कोई कर भी सकता है... यही कमाल है दिमाग का... और इसीलिए जो ख़्याल ज़हन में आया वो ये था... )


उसे फ़क्र है उसकी कलाकारी पर कि उसने दिल भी बनाया, दिमाग भी....

मुझे अफ़सोस है उसके हुनर पर कि उसने दिल तो बनाया, पर दिमाग भी.