नौ महीने के अंधकारवास के बाद
मैं जब इस दुनिया में आया
खुश होने की बजाए जाने क्यों
बहुत रोया, और खूब चीखा चिल्लाया...
उठना, रोना, खाना और सोना
कुछ महीनों तक तो यही चला
हर थोड़ी देर पर आंखे खोल दुनिया को घूरता था
और अपनी निठ्ठली किस्मत पर रोता था
शायद सदमा इतना था कि हर थोड़ी देर में नींद की बेहोशी में होता था...
पल दो पल की देखी में हीं
शायद समझ गया था मैं
इस काली नगरी में मैं भी काला सन जाऊंगा
और शायद एक दिन मैं भी इन जैसा हो जाऊंगा....
मुझसे ज्यादा चिंता मेरे रंग की थी
गोरा, काला या फिर गहरा सांवला
इसपर घंटों चिंता होती थी
मेरे सिर पर बाल कम क्यों हैं
इसका जवाब ढूंढने में लोगों ने अपने बाल नोच डाले
आंख, नाक, मुंह, कान और पता नहीं कौन कौन से अंग
किससे मिलते हैं
इसके जवाब पर तो जिसे मौका मिलता था वही अपना हक जमा ले...
मेरी हर छींक के सौ से ज्यादा कारण थे
और उसका इलाज बताने वाले
वो भी कहां साधारण थे...
मेरा तो ये सब देख देख कर बुरा हाल था
और मेरे डरे, सहमे पिद्दी से दिल में बस यही सवाल था
कि मैं ये सब कब तक सह पाऊंगा
और क्या एक दिन मैं भी इन जैसा हो जाऊंगा....???
पर धीरे धीरे मैं भी एडजस्ट करने लगा
इस दुनिया के अजीबो गरीब रंग में ढ़लने लगा
लेकिन अब भी मेरे हर फैसले पर
किसी न किसी का अमेरीका सा अधिकार मुझे कचोटता था
और मैं यही सोचता था
कि मेरा स्कूल तय करने से पहले ये मुझसे क्यों नहीं पूछते
क्योंकि हर दिन उस स्कूल से 8 घंटे, ये तो नहीं जूझते...
मुझे कौन सा खेल पसंद हो
ये खेल खेल में तय हो जाता है
मुझे हर वही चीज़ मन भाए
जो परिवार के बजट में समाता है
मेरी कोचिंग का नाम भी
उस कोचिंग के पिछले बैच के बच्चों के मार्कस तय कर देते हैं
और विद्रोह का बिगुल फूंको तो सबकुछ तुम्हारे लिए हीं तो किया
ये पलट कर मुझसे कह देते हैं...
मेरे जीवन पर ये सीनाजोरी कबतक चलेगी
और कब तक मैं इस कैद में बंद रह पाऊंगा...
पर उससे भी बड़ा सवाल है
कि क्या एक दिन मैं भी इन जैसा हो जाऊंगा... ???
थोड़ा और बड़ा हुआ, कॉलेज पहुंचा
यहां के तो ढंग हीं निराले थे
सारे सिखिया पहलवान सुंदरीयों के जबरन बना दिए गए भाई
और हर मुशटंडे के निस्वार्थ साले थे
जिसको देखो, करियर...करियर चिल्लाता फिरता था
और जो वो बनना चाहते थे उसका पढ़ाई से निपट नहीं कोई नाता था
परिवार की झूठी आन, बान और शान के लिए
जिन्दगी के सुनहरे दिन और कोरे कागज
दोनों काले कर दिए
हमारे जीवन के उठने, बैठने, जगने, सोने और नित्य क्रियाओं तक के
सारे कार्यक्रम और समय प्रिंसीपल नाम के निगोड़े ने तय किए
कॉलेज के गेट पर बैठा
यही सोचता रहता था
कब तक इनके बनाए रस्तों पर मैं आंखें भींचे चल पाऊंगा
कहीं एक दिन मैं भी इन जैसा तो नहीं हो जाऊंगा....
अब तो नौकरी करता हूं
दिनभर बॉस की हां में हां, कईयों को भरते देखता हूं
जीवन कैसे जीना है, आगे कैसे बढ़ना है
दूसरों के अलौकिक इतिहास की गाथाएं
किसी तीसरे के मुंह से सुनकर पकता रहता हूं
शादीशुदा मशीनों से भी मिलना हो जाता है
जिन्हें कब बीवी, बच्चे, ससुराल या फिर बॉस के मोड में चलना है
ये भी कोई और हीं बताता है
एक जीवन मिला था, जो सबने किसी और के मुताबिक जीया
कौन क्या सोचेगा, ये किया तो क्या होगा, हार गए तो....
ये सब सोचने में हीं व्यर्थ कर दिया
पर क्या मैं अपना जीवन अपनी मर्ज़ी से जी पाऊंगा
या फिर एक दिन मैं भी इन जैसा हो जाऊंगा........
apka blog jagat me swagat hai
ReplyDeleteblog jagat men swagat hai.
ReplyDeleteसुन्दर कविता है सुशान्त जी,
ReplyDeleteये पंक्तियाँ अच्छी लगीं
एक जीवन मिला था, जो सबने किसी और के मुताबिक जीया
कौन क्या सोचेगा, ये किया तो क्या होगा, हार गए तो....
सादर
अमित
achha laga....wel come & all the best
ReplyDeleteSushant Ji,
ReplyDeleteAapaka Blog Jagat me swagat hai, Likhate rahiye, Khoob Likhiye.
Kavita poora kaa poora kisi Jeevan kaa dastawej hai, Rochak hai.
Mukesh Kumar Tiwari
वाह क्या धमाकेदार रचना लिखी है..........
ReplyDeleteक्या मैं भी इंसान हो जाऊँगा...........लाजवाब
स्वागत है आपका
हुज़ूर आपका भी ....एहतिराम करता चलूं .......
ReplyDeleteइधर से गुज़रा था, सोचा, सलाम करता चलूं ऽऽऽऽऽऽऽऽ
ये मेरे ख्वाब की दुनिया नहीं सही, लेकिन
अब आ गया हूं तो दो दिन क़याम करता चलूं
-(बकौल मूल शायर)
swaagt hai...shubhkaamnayen.
ReplyDeleteब्लॉग जगत में आपका स्वागत है
ReplyDeleteShubhkamnaon sahit swagat hai..
ReplyDeleteDuaa hai, din b din rachnaonpe nikhaar aata rahegaa..
snehsahit
shama
बहुत खूब लिखा है ,,स्वागत है
ReplyDeleteपूरी संभावना है गुरु, कि इनके जैसे ही हो जाओगे.....
ReplyDeleteमुश्किल बहुत है डगर पनघट की...
बहुत जोर पड़ता है जब
पहिए लीक को काटते हैं.....
wah ! narayan narayan
ReplyDeletewell done....& welcome to my blog...
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