Sunday, April 18, 2010

आखिरी बार कब......?

मेरा सवाल थोड़ा अजीब जरुर लगे पर मैं यही पूछना चाहता हूं कि,आखिरी बार कब नहाए थे आप... ???
मुझे यकीन है कि जवाब आज, अभी या दिन में कई बार हीं होगा आपमें से ज्यादातर लोगों का और इतनी गर्मी में भी अगर कोई ऐसा है जो जवाब कल,परसों या कुछ दिन पहले... के तौर पर दे सकता है तो वो चरणस्पर्श योग्य है...(इतनी गर्मी में पसीने से नहाने के बाद भी पानी से नहाने का मन ना करे जिसका उसके पैर तो छू हीं लेने चाहिए... बिरले मिलते हैं ऐसे महापुरुष जो दुनिया के लिए पानी बचाने के लिए कुछ भी सह जाते हैं...)

खैर, अब मैं सवाल फिर पूछता हूं लेकिन थोड़ा बदलकर... सवाल वही है, कि आप आखिरी बार कब नहाए थे... ??? वो कौन सा दिन था जब आप नहाते वक्त सिर पर पड़ी पानी की पहली बूंद को महसूस कर पाए थे... ??? वो कौन सा दिन था जब नहाते वक्त पानी और शरीर के दूसरे अंगों का आपसी आलिंगन महसूस किया था... ??? वो कौन सा दिन था जब पानी की ठंडक या गर्माहट को रुह तक का रास्ता तय करते देखा था... ???

हो सकता है कईयों को याद ना हो क्योंकि ये एक बड़ा सच है... जब हम नहा भी रहे होते हैं तो कुछ न कुछ सोच रहे होते हैं... पानी,सिर पर गिरकर बदन पर से होता हुआ कब नाली में चला जाता है, पता तक नहीं चलता... क्योंकि शरीर तो नहा रहा होता है लेकिन मन ख्यालों के रेगिस्तान में भटक रहा होता है...
और ये बात सिर्फ नहाने के लिए लागू नहीं होती... आप खुद से सवाल पूछ सकते हैं कि आखिरी बार कब खाए थे... ? या यूं कहिए कि आखिरी बार कब खाने के हर निवाले को महसूस किया था.... ???
आखिरी बार ड्राइविंग कब की थी... ??? आखिरी बार बात-चीत कब की थी, क्योंकि बात-चीत के दौरान भी वहां न होना बहुत आम हैं... कमी वक्त की नहीं है... फितरत बन गयी है ये हम सब की...

शरीर कहीं, मन कहीं... लेकिन आज हीं एक दोस्त ने अपने पिताजी की बात समझाई कि इंसान की सबसे बड़ी लड़ाई खुद से है,किसी और से नहीं... दरअसल हम इस दुनिया में दूसरों को खुद के मुताबिक देखना चाहते हैं... दूसरों के जीवन पर पूर्ण अधिकार चाहते हैं लेकिन खुद पर हमारा वश नहीं है... हम खुद पर हीं जीत हासिल नहीं कर पाते... मन का भटकाव भी इसी की वजह से है क्योंकि जो हम चाहते हैं उसका आवेग इतना है कि मन पर के नियंत्रण को ध्वस्त कर देता है... और इसीलिए जरुरत है मन को जीतने की...
बहुत मुश्किल है... बहुत हीं ज्यादा मुश्किल... लेकिन जो जीत गया... वो फिर जिन्दगी में कभी नहीं हारता... हम मन से नहीं हैं बल्कि मन हमसे है... लेकिन वास्तविक्ता बिलकुल उलट है इससे... और इसीलिए ज्यादातर वक्त हम खुद के साथ हीं नहीं होते... कई बार जिस समस्या को, सोचने का 10 फीसदी हिस्सा देना है उसे 90 फीसदी का अधिकार देकर न सिर्फ उस समस्या को बड़ा बनाते हैं बल्कि बाकि उलझनों को छोटा कर उनके परिणामों को भी बड़ा कर देते हैं...

इसलिए जरुरी है कि मन पर काबू पाया जाए... औऱ इसके लिए जरुरी है कि सच को नज़रअंदाज़ ना करें... कहते हैं झूठ के पांव नहीं होते और इसीलिए वो ज्यादा दूर चल नहीं पाता लेकिन सच हमेशा साथ निभाता है... मन की फितरत की वजह से कई बार हम सच को देख रहे होते हैं लेकिन दूसरी तरफ वो भी नज़र आता है जो क्षणिक है, आकर्षक है और मन का है और शायद बाद में तकलीफ देने वाला भी... पर हम सच को कोने की नज़र से देखते हुए भी उस तरफ बढ़ जाते हैं जिधर मन ले जाता है और वहीं से परेशानियों का रास्ता शुरु होता है...

मन की सुनिए लेकिन सत्य को अनदेखा भी न किजिए... मन काबू में होगा तो नहा भी पाएंगे, खा भी पाएंगे और खुद के साथ वक्त भी बिता पाएंगे... और हां, खुद को जीत भी पाएंगे...

Thursday, April 8, 2010

तुम...

तुम...
मेरा प्यार ,
मेरा उद्गगार,
मेरा संघर्ष भी
मेरा हर्ष भी
मेरी कमी,
मेरी संपूर्णता
मेरी बुद्दिमानी
मेरी मूर्खता

तुम...

मेरा हर पल
मेरा कौतूहल
मेरी बेचैनी
मेरा करार
मेरा किनारा
मेरी मझदार

तुम...

आंसूओं से भीगी पलक भी
खुशी की झलक भी
तुम विरह
तुम मिलन भी
तुम तन मेरा
तुम मन भी
बिन तुम
सब गुमसुम
कभी तुम कहीं नहीं
और कभी हरकहीं
जाने कैसे तुम्हे समझाउं
तुम बिन
मैं कुछ भी नहीं...