(आजकल बहुत से लोग, जो मुझे अरसे से जानते हैं, कहते हैं मैं बहुत बदल गया हूं... बहुत चुप हो गया हूं... बोलता नहीं... जब लिखने बैठा था तो लगा था कि बहुत कुछ कह पाउंगा लेकिन यहां भी शब्दों के जरिए भी बहुत कम हीं कह पाया... न जाने क्या हुआ और बस आधा-अधूरा लिखकर खत्म कर दिया... यहां भी बोल नहीं पाया... :-(
पूरे चांद की रात है,
सन्नाटे का साथ है...
घर की मुंडेर पर खड़ा ताक रहा हूं
शायद खुद में हीं झांक रहा हूं...
गुलाबी ठंड लिए हवा अभी बगल से गुज़री है
पर मन तो न जाने कब से जमा है
सब चल रहे हैं, बढ़ रहे हैं
पर मेरा तो हर हिस्सा जैसे वहीं थमा है...
जीवन के अनुभवों से छलनी अंतर्मन से
मानों सवाल रिस रहे हैं
सवाल, जो पूछते हैं
सबकुछ यूं हीं कब तक चलेगा
मुझको जो पढ़ ले, ऐसे किसी का ना होना कब तक खलेगा
हर लम्हा दूसरों के मुताबिक क्यों ढ़लेगा
जो हर पल जिए मुझे, वो कब मिलेगा........
और भी न जाने कितने सवाल
जवाबों के सूखे ने
जीने की लालसा को बंजर बना डाला है
औऱ अब तो सिर्फ यही पूछता हूं
क्यों... आखिर क्यों....
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