Sunday, February 1, 2015

डर लगता है...

हम सब जीवन में कभी न कभी, किसी न किसी तरह के डर से जूझते रहते हैं... कुछ न कुछ.. कहीं न कहीं.. कुछ है जो अंदर घर कर जाता है और डराता रहता है... ऐसे ही कुछ डर को शब्द दिए हैं... ये सारे तो नहीं, पर इनमें से कोई न कोई डर, कभी न कभी शायद सबके हिस्से आता है।
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रूठ जाने में भी अब डर लगता है
जाने कोई मनाएगा कि नही...
घर छोड़कर आने में भी अब डर लगता है,
जाने कोई बुलाएगा भी कि नहीं।

थम जाने में भी अब डर लगता है
जाने कोई हाथ पकड़कर साथ ले जाएगा कि नहीं...
निकलने में सफ़र पर भी डर लगता है,
जाने मुसाफ़िर मंज़िल पाएगा कि नहीं।

ख़ामोश रहने में अब डर लगता है
जाने गुफ़्तगू छेड़ने कोई आएगा कि नहीं...
सब कह देने में भी तो डर लगता है,
जाने कोई समझ पाएगा कि नहीं।

देखने में सपने डर लगता है
जाने सुबह कोई नींद से जगाएगा कि नहीं...
और कभी कभी तो डर जाने से भी डर लगता है,
जाने कोई आंचल में छुपाएगा कि नहीं।

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